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यापनीय साहित्य : १९९ हुआ।" यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि मूल श्लोक में जहाँ मुनि पुङ्गवों के लिए आहारदान का उल्लेख किया गया है, वहाँ श्रमण और आर्यिकाओं के लिए वस्त्र और अन्न (आहार) के दान का प्रयोग हुआ है। संभवतः यहाँ अचेल मुनियों के लिए ही 'मुनिपुङ्गव' शब्द का प्रयोग हुआ है और सचेल मुनि के लिए 'श्रमण' । भगवती आराधना एवं उसकी अपराजित की टीका से यह स्पष्ट हो जाता है कि यापनीय परम्परा में अपवाद मार्ग में मुनि के लिए वस्त्र-पात्र ग्रहण करने का निर्देश है । ___वस्त्रादि के संदर्भ में उपरोक्त सभी तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जटासिंहनन्दि और उनका वरांगचरित भी यापनीय कूर्चक परम्परा से सम्बद्ध रहा है।
(१३) वर्ण-व्यवस्था के सन्दर्भ में भी वरांगचरित के कर्ता जटासिंहनन्दि का दृष्टिकोण आगमिक धारा के अनुरूप एवं अति उदार है। उन्होंने वरांगचरित के पच्चीसवें सर्ग में जन्मना आधार पर वर्ण व्यवस्था का का स्पष्ट निषेध किया है। वे कहते हैं कि वर्ण व्यवस्था कर्म-विशेष के आधार पर ही निश्चित होती है इससे अन्य रूप में नहीं। जातिमात्र से कोई विप्र नहीं होता, अपितु ज्ञान, शील आदि से ब्राह्मण होता है । ज्ञान से रहित ब्राह्मण भी निकृष्ट है किन्तु ज्ञानी शूद्र भी वेदाध्ययन कर सकता है। व्यास, वसिष्ठ, कमठ, कण्ठ, द्रोण, पराशर आदि ने अपनी साधना
१. "आहारदानं मुनि पुङ्गवेभ्यो, वस्त्रान्नदानं श्रमणायिकाभ्यः । किमिच्छदानं खलु दुर्गतेभ्यो दत्वाकृतार्थो नृपतिर्बभूव ।।
-वरांगचरित, २३/९२ *(ज्ञातव्य है कि मूल में प्रफ की अशुद्धि से श्रमण के स्थान पर श्रवण छप
गया है ।) २. (अ) आपवादिक लिंगं सचेललिंग"...."।
-भगवती आराधना टीका, पृ० ११४ (ब) चत्तारि जणा भत्तं उवकप्पेंति"..."। चत्तारिजणा रक्खन्ति दवियमुवकप्पियं तयं तेहि ।
-भगवती आराधना ६६१ एवं ६६३ ३. क्रियाविशेषाद्व्यवहारमात्रायाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥
-वरांगचरित, २५/११
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