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________________ १९६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय हैं, बल्कि किसी सीमा तक यापनीयों से भी भिन्न प्रतीत होते हैं। यद्यपि यह सम्भावनाहै कि यापनीयों में प्रारम्भ में आगमों का अनुसरण करते हुए १२ भेद मानने की प्रवृत्ति रही होगी, किंतु बाद में दिगम्बर परम्परा या अन्य किसी प्रभाव से उनमें १६ भेद मानने की परम्परा विकसित हुई होगी। तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में तथा तिलोयपण्णत्ति में इन दोनों ही परम्पराओं के बीज देखे जाते हैं । तत्त्वार्थसूत्र का सर्वार्थसिद्धि मान्य यापनीय पाठ जहाँ देवों के प्रकारों की चर्चा करता है, वहाँ वह १२ का निर्देश करता है, किन्तु जहाँ वह उनके नामों का विवरण प्रस्तुत करता है तो वहाँ १६ नाम प्रस्तुत करता है । यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति में भी १२ और १६ दोनों प्रकार की मान्यतायें होने का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है। इससे स्पष्ट लगता है कि प्रारम्भ में आगमिक मान्यता का अनुसरण करते हुए यापनीयों में और यदि जटासिंहनन्दि कूर्चक हैं तो कर्चकों में भी कल्पवासी देवों के १२ प्रकार मानने की परम्परा रही होगी। आगे यापनीयों में १६ देवलोकों की मान्यता किसी अन्य परम्परा के प्रभाव से आयी होगी। (१०) वरांगचरित में वरांगकुमार की दोक्षा का विवरण देते हुए लिखा गया है कि-'श्रमण और आर्यिकाओं के समीप जाकर तथा उनका वनयोपचार (वन्दन) करके वैराग्ययुक्त वरांगकुमार ने एकान्त में जा सिंन्दर आभूषणों का त्याग किया तथा गुण, शील, तप एवं प्रबुद्ध तत्व रूपी सम्यक् श्रेष्ठ आभूषण तथा श्वेत शुभ्र वस्त्रों को ग्रहण करके वे ब्राह म्यं पुनः पञ्चममाहुरास्तेि लान्तवं षष्ठमुदाहरन्ति । स सप्तमः शुक्र इति प्ररूढः कल्पः सहस्रार इतोऽष्टमस्तु ।। यमानतं तन्नवमं वदन्ति स प्राणतो यो दशमस्तु वर्ण्यः । एकादशं त्वारणमामनन्ति तमारणं द्वादशमच्युतान्तम् ।। -वरांगचरित, ९/७-८-९ १. दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपपन्नपर्यन्ताः । -तत्त्वार्थसूत्र (विवेचक-पं० फूलचन्द्र शास्त्री) ४/३, पृ० ११८ देखें-४।१९ में १६ कल्पों का निर्देश है । २. वारस कप्पा केई केई सोलस वदंति आइरिया ॥११५॥ सोहम्मीसाणसणक्कुमारमाहिंदबम्हलंतवया । महसुक्कसहस्सारा आणदपाणदयारणच्चुदया ॥१२०॥ -तिलोयपण्णत्ती आठवाँ अधिकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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