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१७६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
अवस्था में और भाव से तीनों वेदों से मुक्ति होती है, पूरी तरह अयुक्तिसंगत है। तीनों वेद (वासना भावों) की उपस्थिति में मुक्ति सम्भव नहीं है । यहाँ भी श्लोकों के मूल पाठ के साथ छेड़छाड़ की प्रतीत गई होती है ।
(७) हरिवंश पुराण में आर्यिकाओं का स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है | उन्हें 'एक वसनार्वता' कहा गया है । यह स्पष्ट बताया जा चुका है कि आर्यिका संघ की व्यवस्था यापनीय है । जो परंपरा स्त्री में महाव्रत के आरोपण को ही सम्भव नहीं मानती हो, उसमें आर्यिका संघ की व्यवस्था संभव ही नहीं बनती। यह सत्य है कि यापनीय और उनसे विकसित द्राविड़ संघ और माथुर संघ भी स्त्री का महाव्रतारोपण करते हुए उसे पुन दक्षा ( श्वेताम्बरों की बड़ी दीक्षा ) देते थे ।
हरिवंश के ६० वें सर्ग में कृष्ण की आठों पटरानियों सहित अनेक स्त्रियों के दीक्षित होने का उल्लेख है जो उसके यापनीय होने की सम्भावना को पुष्ट करती है । कृष्ण की आठ रानियों के दीक्षित होने के ये उल्लेख श्वेतांबर मान्य अन्तकृत् दशा में हैं । इसी प्रकार इसमें द्रोपदी का जो कथानक मिलता है, वह भी ज्ञाताधर्मकथा के अनुरूप है । इसका गजसुकुमाल का कथानक भी अन्तकृतदशा में यथावत रूप में मिलता है | हरिवंश पुराण की श्वेतांबर आगमों से यही निकटता उसके यापनीय होने की मान्यता को पुष्ट करती है ।
(८) हरिवंश पुराण के यापनीय होने का एक प्रमाण यह भी मिलता है कि उसमें 'नारद' को दो स्थानों पर चरमशरीरी कहा गया है" जबकि तिलोयपण्णत्ति और त्रिलोकसार नारद को नरकगामी मानते हैं । श्वेतांबर परंपरा में ऋषिभासित में नारद को अर्हत् ऋषि कहा गया है । ७ पुनः उन्हें प्रत्येक बुद्ध कह कर उनके चरमशरीरी होने की पुष्टि की गई है । '
१. हरिवंशपुराण ६० ।
२. अन्तकृतद्दशांग — पाँचवा वर्ग ।
३. ज्ञाताधर्मकथा वर्ग १ अध्याय १६ ।
४. अन्तकृतदशांग वर्ग ३ अध्याय ८ ।
५. हरिवंश पुराण ४२ / २२, ६५/२४, १७/१६३ ।
६. त्रिलोकसार ८३५ ।
७. ऋषिभाषित १ ।
८. ऋषिभाषित - संग्रहणी गाथा ।
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