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________________ यापनीय साहित्य : १६५ में नहीं मिलता है। प्रतिक्रमण सूत्र में सूत्रकृतांग के इन अध्यायों का उल्लेख स्पष्ट रूप से इस तथ्य का सूचक है कि जिस परम्परा में यह प्रतिक्रमण बना, उसमें सूत्रकृतांग के अध्ययन की परम्परा रही होगी, अन्यथा तत्सम्बन्धी प्रतिक्रमण का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। इस आधार पर भी यही फलित होता है कि उपरोक्त प्रतिक्रमण सूत्र यापनीय परम्परा का रहा है। (६) इस प्रतिक्रमण सूत्र में मंगल के रूप में दशवैकालिक सूत्र के प्रथम अध्याय की प्रथम गाथा उल्लेखित है यह स्पष्ट है कि दशवैकालिक सूत्र श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही परम्पराओं में ९वीं शताब्दी तक मान्य रहा है। यापनीय आचार्य अपराजित सरि ने तो भगवती अराधना की टीका के साथ ही दशवकालिक की टीका भी लिखी थी । दुर्भाग्य से यह टीका आज अनुपलब्ध है। जैसा कि हम पहले उल्लेख कर चुके हैं कि इस प्रतिक्रमणसूत्र में अनेक पाठ यथावत् रूप में या वाचनाभेद आदि के साथ श्वेतान्बर मान्य आवश्यकस्त्र में पाये जाते हैं। आवश्यकसूत्र को भी श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही मान्य करते थे। अतः फलित यही होता है कि यह प्रतिक्रमण रूप मूलतः यापनीय परम्परा रहा होगा, जिसे बाद में दिगम्बर आचार्यों ने अपना लिया होगा। बृहत्कथाकोश ( आराधनाकथाकोश) बृहत्कथाकोश ( आराधनाकथाकोश ) यापनीय परम्परा का एक अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में रचित है। इसमें १५७ कथाएँ हैं, जो मूलतः भगवती-आराधना में उल्लिखित हैं, किन्तु यहाँ वे कथाएँ विस्तार से वर्णित है। इसका रचनाकाल ई० सन् ९३२ है। इसकी श्लोक संख्या १२५०० है। यह ग्रन्थ निम्न आधारों पर यापनीय प्रतीत होता है (१) इस बृहत्कथाकोशकी कथाओं का आधार भगवती-आराधना है। स्वयं कथाकोश कर्ता हरिषेण ने भी इसे आराधनोद्धृत कहा है आराधनोद्धृत पथ्यो भव्यानां भावितात्मनाम् । हरिषेणकृतो भाति कथाकोशो महीतले ॥ -आराधनाकथाकोश प्रशस्ति ८ ज्ञातव्य है कि भगवती आराधना यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है । उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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