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१६० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
आहार लाकर आपवादिक स्थिति में उपाश्रय में आहार ग्रहण करने की परम्परा रही होगी। यह परम्परा यापनीयों की ही हो सकती है, दिगम्बरों की नहीं, क्योंकि यापनीय अपवादमार्ग में पात्र में भिक्षा ग्रहण करना मान्य करते थे ।
(१२) विजयोदयाटीका में सवेद्य, सम्यक्त्व, हास्य, पुरुषवेद, शुभनाम, शुभगोत्र, शुभआयु को पुण्यप्रकृति कहा गया है। इस कथन का समर्थन दिगम्बर परम्परा में कहीं भी नहीं देखा जाता है। जबकि तत्त्वार्थ भाष्य में यह मान्यता उपस्थित है और उसकी आलोचना भी सिद्धसेनगण ने की है । इससे यही फलित होता है कि अपराजित याप -- नीय रहे होंगे ।"
यदि गहराई से विजयोदयाटीका का अध्ययन किया जाय तो और भी ऐसे अनेक तथ्य मिल जायेंगे, जिनके आधार पर उसे यापनीय कहा जा सकता है ।
आवश्यक ( प्रतिक्रमणसूत्र )
जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था द्वारा, पं० मोतीचन्द गोतमचन्द कोठारी द्वारा सम्पादित 'प्रतिक्रमण-ग्रन्थ त्रयी' का प्रकाशन हुआ है वस्तुतः यह अचेल परम्परा में प्रचलित आवश्यक सूत्र ही है'। इस ग्रन्थ के कर्ता गौतम स्वामी और टीकाकार प्रभाचन्द्र पण्डित हैं । मूलग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में है और टीका संस्कृत भाषा में है ।
जहाँ तक ग्रन्थ के कर्ता का प्रश्न है यद्यपि टीकाकार ने गौतम स्वामी का उल्लेख किया है किन्तु यह अनुश्रुति ही हो सकती है क्योंकि ग्रन्थ में शय्यम्भव के दशवेकालिक की प्रथम गाथा भी है। वस्तुतः यह किसी प्राचीन आचार्य की कृति है, जो अर्धमागधी के आवश्यक सूत्र के ही आधार पर बनी है | मुझे निम्न कारणों से यह ग्रन्थ भी यापनीय परम्परा का प्रतीत होता है
( १ ) सर्वप्रथम इस ग्रन्थ की विषय वस्तु का लगभग अस्सी प्रतिशत भाग शौरसेनी या अर्धमागधी भाषा के अथवा क्रम सम्बन्धी अन्तर को छोड़कर वही है, जो श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित आवश्यक सूत्र में
१. यापनीय और उनका साहित्य, पृ० १३५ ।
२. समदा थवो वंदण पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं ।
पच्चक्खाण
विसग्गो
करणीयावासयाछप्पि ||
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- प्रतिक्रमण ग्रन्यत्रयी पु० १४
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