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१५८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय अपराजित की विजयोदया टीका में मनि के उत्सर्ग और अपवादलिंग की विस्तृत चर्चा है। इसमें वस्त्रधारण को अपवाद लिंग माना गया है। हमारे दिगम्बर आचार्य वस्त्रधारी को श्रावक की कोटि में वर्गीकृत करते हैं उसे किसी भी स्थिति में मुनि नहीं मानते हैं, जबकि अपराजित उन्हें मुनि की कोटि में ही वर्गीकृत करते हैं, कहीं भी उन्हें उत्कृष्ट श्रावक नहीं कहते हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि अपवादलिंग की यह चर्चा मुनि के सन्दर्भ में ही है। गृहस्थ के सन्दर्भ में नहीं है । गृहस्थ तो सदैव ही वस्त्रयुक्त होता है । जो वस्त्रधारी ही है, उसके लिये वस्त्रधारण अपवाद कैसे हो सकता है ? किन्तु हमारे कुछ मूर्धन्य दिगम्बर विद्वान् शब्दों को तोड़-मरोड़ कर अपवाद लिंग को गृहस्थ लिंग बताने का प्रयास करते हैं-पं० कैलाशचन्द्रजी भगवती आराधना की भूमिका में लिखते हैं कि "इस टीका में अपराजितसूरि ने औत्सर्गिक का अर्थ सकल परिग्रह के त्याग से उत्पन्न हुआ किया है तथा आपवादिक लिंग का अर्थ परिग्रह सहित किया है, क्योंकि यतियों के अपवाद का कारण होने से परिग्रह को अपवाद कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि आपवादिक लिंग का धारी गृहस्थ ही होता है। मुनि तो औत्सर्गिक लिंग का हो धारी होता है" किन्तु अपवाद की उनकी यह व्याख्या भ्रान्त है। मूल ग्रन्थ और टीका में अपवाद लिंग का तात्पर्य लिंग, अण्डकोष आदि में दोष होने पर या सम्भ्रान्त कुल का एवं लज्जालु होने पर वस्त्र युक्त रहकर भी मुनि चर्या करना है। अपवादलिंगी मुनि ही होता है, गृहस्थ नहीं। इस सम्बन्ध में डॉ० कुसुम पटोरिया का दृष्टिकोण यथार्थ है। वे लिखती हैं कि "अपवाद उत्सर्ग सापेक्ष होता है। परिग्रह त्याग मुनि का उत्सर्ग लिंग है अतः परिग्रह धारण भी यति का ही अपवाद लिंग होता होगा | गृहस्थ तो परिग्रही होता ही है । अतः अपवादलिंग मुनि का ही होता है।" यह बात इसी तथ्य को प्रमाणित करती है कि अपराजित को विजयोदयाटीका यापनीय कृति है।
(७) दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद, अकलक आदि रात्रिभोजनत्याग को आलोकित पान-भोजन नामक अहिंसा महाव्रत की भावना में समाहित करते हैं, वहां श्वेताम्बर मान्य दशवैकालिक आदि आगम और
१. देखें जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय-ले० डा० सागरमल जैन, पृ० ४३.४४ -२. यापनीय और उनका साहित्य, पृ० १२० ।
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