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________________ यापनीय साहित्य : १५७ के भावना नामक अध्ययन) में कहा है कि जिन एक वर्षतक वस्त्रधारी रहे उसके बाद अचेलक रहे ।' उसमें बहुत विवाद है । कोई कहते हैं कि उसी दिन वह वस्त्र वीर भगवान् के किसी व्यक्ति ने ले लिया था । दूसरों का कहना है कि वह वस्त्र छह मास में काँटे, शाखा आदि से छिन्न हो गया। कोई कहते हैं कि एक वर्ष से कुछ अधिक होने पर उस वस्त्र को खंडलक नाम के ब्राह्मण ने ले लिया था। कुछ कहते हैं कि हवा से वह वस्त्र गिर गया और जिनदेव ने उसकी उपेक्षा कर दी। अन्य कहते हैं कि उस पुरुष ने उस वस्त्र को वीर भगवान् के कन्धे पर रख दिया । इस प्रकार बहुत विवाद होने से इसमें कुछ तत्त्व दिखाई नहीं देता। यदि वोर भगवान ने सवस्त्र वेष प्रकट करने के लिए वस्त्र ग्रहण किया था तो उसका विनाश इष्ट कैसे हुआ । सदा उस वस्त्र को धारण करना चाहिये था तथा यह वस्त्र विनष्ट होने वाला है ऐसा उन्हें ज्ञात था तो उसका ग्रहण निरर्थक था । यदि उन्हें यह ज्ञात नहीं था तो वीर भगवान् अज्ञानी ठहरते हैं तथा यदि चेलप्रज्ञापना इष्ट थी तो 'प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का धर्म अचेल था' यह वचन मिथ्या ठहरता है। तथा नव स्थान में कहा है-'जैसे मैं अचेल हुआ वैसे ही अन्तिम तीर्थंकर अचेल होंगे।' उससे भी विरोध आता है। अन्य तीर्थंकरों ने भी वस्त्र धारण किया था तो वीर भगवान् की तरह उनका भी वस्त्र त्यागने के काल का निर्देश क्यों नहीं है ? इसलिए ऐसा कहना युक्त है कि जब वीर भगवान् सर्वस्व त्याग कर ध्यान में लीन हुए तो किसी ने उनके कन्धे पर वस्त्र रख दिया। यह तो उपसर्ग हुआ।' यह सब उहापोह टीकाकार अपराजित को यापनीय ही सिद्ध करता है। क्योंकि यह समस्या भी यापनीयों द्वारा आगमों को मान्य करने से उत्पन्न हुई थी। जो परम्परा आगमों का पूर्ण विच्छेद और उपलब्ध आगमों को अप्रमाण मान रही थी, उसके लिये यह समस्या ही नहीं थी। इससे आराधना का यापनीय होना सुनिश्चित है। (५) विजयोदयाटोका में जटासिंहनन्दी के 'वरांगचरित्र' से कुछ श्लोक उद्धृत किये गये हैं। जटासिंहनन्दी को कन्नड़ कवि जन्न ने क्राणूरगण का बताया है और यह क्राणूरगण यापनीय है । पुनः जन्न ने जटासिंह नन्दी के अतिरिक्त इन्द्रनन्दि का भी उल्लेख किया है और पूर्व में हम बता चुके हैं कि ये इन्द्रनन्दी और उनके द्वारा निर्मित छेदपिंड नामक ग्रन्थ यापनीय है। (१) भगवती आराधना मूल गाथा ७६ से ८६ तक में और उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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