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१५० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय किसी निश्चय पर पहुँचना कठिन अवश्य है किन्तु ग्रन्थ की विषयवस्तु एवं उसमें उपलब्ध उल्लेखों के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता हैछेदपिण्ड सातवीं से नवीं शती के मध्य हए यापनीय या यापनीय संघ से निकले हुए किसी अन्य गण के इन्द्रनन्दि की रचना है और ये इन्द्रमन्दि वही हैं जिनका उल्लेख शाकटायन और नेमिचन्द्र इन्द्रनन्दि गुरु के रूप में करते हैं और जो कर्मशास्त्र के विशिष्ट ज्ञाता थे।
प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता को और ग्रन्थ को यापनीय परम्परा से सम्बन्धित क्यों माना जाय, इस सम्बन्ध में निम्न तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं
भगवती आराधना, मूलाचार और उनकी विजयोदया टीका से यह स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य छेद ग्रन्थ यापनीय परम्परा में प्रमाणरूप में स्वीकार किये जाते थे। विजयोदया टीका में अनेक स्थलों पर इन ग्रन्थों के सन्दर्भो का प्रमाण के रूप में उल्लेख किया गया है। छेद-पिण्ड प्रायश्चित्त ग्रन्थ की २२८वीं गाथा में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि कल्प-व्यवहार में ये जो दस प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गये हैं, उन्हें जीतकल्प में कहे गये पुरुषभेद को जानकर देना चाहिए।' इससे स्पष्ट रूप से यह फलित होता है कि ग्रन्थकार न केवल कल्प, व्यवहार और जीतकल्प का निर्देश करता है अपितु उन्हें प्रमाणरूप स्वोकार कर उन्हीं के अनुरूप प्रायश्चित देने का विधान भी करता है।
२. ग्रन्थ की गाथा ३०३ में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 'देशयति को संयती के प्रायश्चित्त का आधा देना चाहिए"२ इससे यह प्रतीत है कि यह परम्परा ऐलक, क्षुल्लक आदि को उत्कृष्ट श्रावक न मानकर श्रमण वर्ग के अन्तर्गत ही रखती थी। जबकि मूलसंघीय परम्परा परिग्रह रखनेवाले व्यक्ति को श्रावक की अवस्था से ऊपर नहीं मानती है। यापनीय परम्परा में आचारांग का सन्दर्भ देकर श्रमणों के दो विभाग किये गये हैं-सर्व श्रमण और नो सवं श्रमण । नोसर्वश्रमण को ही शब्द भेद से इस ग्रन्थ में देशयति माना गया है। दिगम्बर परम्परा में प्रचलित
१. एवं दसविध पायच्छित्तं भणियं तु कप्पववहारे । जीदम्मि पुरिसभेदं णा दायन्वमिदि भणियं ॥
-छेदपिण्डम्, २८८ २. देसजदीणं छेवो विरवाणं अबद्धपरिमाणं ।-छेदपिण्डम्, ३०३ ।
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