________________
यापनीय साहित्य : १४९ ने गोम्मटसार में सत्त्व स्थान का विवेचन किया है। इसी प्रसंग में गाथा ३९१ से ३९५ तक में मान्यता भेद का उल्लेख किया गया है। गोम्मटसार
नेमिचन्द्र के गुरु वीरनन्दि का एवं कनकनन्दि के गुरु इन्द्रनन्दि और इन्द्रनन्दि के गुरु अभयनन्दि का उल्लेख मिलता है । यदि ये सब साक्षात् गुरु थे या परम्परा गुरु थे, यह बता पाना कठिन है । किन्तु इससे यह स्पष्ट होता है कि गोम्मटसार में उल्लिखित इन्द्रनन्दि, जो कि सकल श्रुत के पारगामी और कर्मप्रकृति के ज्ञाता थे, ही छेदपिण्ड के कर्ता हों । ये नेमिचन्द्र से लगभग सौ वर्ष पूर्व तो हुए होंगे अतः इनका काल लगभग ई० सन् की नवीं शती होगा । पुनः कर्मसिद्धान्त और कल्प, व्यवहार, आदि छेदसूत्रों के अध्ययन की परम्परा यापनीय परम्परा में ही रही है अतः ये इन्द्रनन्दि यापनीय ही होंगे ।
११वीं एवं १२वीं शती के कुछ शिलालेखों में द्राविड़ संघ के नन्दिसंघ के अरुंगल अन्वय के इन्द्रनन्दि का उल्लेख मिलता है । ज्ञातव्य है नन्दिसंघ जो बाद में द्राविडसंघ में अन्तर्भुक्त हुआ मूलतः यापनीय था इसकी चर्चा हम द्वितीय अध्याय में कर चुके हैं। इन शिलालेखों में समन्तभद्र, अकलंक, पुष्पसेन और विमलचन्द के पश्चात् इन्द्रनन्दि का उल्लेख है ।' इससे यह फलित होता है कि ये इन्द्रनन्दि अकलंक के बाद नेमिचन्द्र के पूर्व हुए हैं अतः इनका समय ९वीं शती मानना उचित है । शिलालेख में इन्हें प्रतिष्ठाकल्प, ज्वलिनी कल्प का कर्ता कहा गया है । जैन साहित्य के बृहद् इतिहास, भाग ५ के अनुसार इन्द्रनन्दि ने ज्वालिनी कल्प की रचना शकसंवत् ८६१ में मानखेड़ के राजा कृष्णराज के राज्यकाल में की थी । इनके गुरु बप्पनन्दी थे । स्मरण रहे कि इसी काल में बप्पभट्टि नामक एक प्रसिद्ध जैनाचार्य उत्तर भारत में हुए हैं-ग्वालियर से उनके अभिलेख भी मिले हैं - यद्यपि उन्हें श्वेताम्बर माना जाता है । पर्याप्त प्रयास के पश्चात् हमें इन्द्रनन्दि के सम्बन्ध में एक अन्य अभिलेख भी प्राप्त हुआ है - यह अभिलेख रामनगर ( अतिछत्रा ) का है इसमें 'महाचार्य इन्द्रनन्दि शिष्य महाहरि पार्श्वपतिस्य कोतरि' ऐसा उल्लेख है । कनिंघम के अनुसार इसका काल गुप्तकाल की अवनति से पूर्व का है । सम्भवतः ये इन्द्रनन्दि सातवीं-आठवीं शती के हों ।
शिलालेखों में इन्द्रनन्दि नामक अनेक आचार्यों के उल्लेख होने से
९. जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, पृ० २०५-२०६, लेख क्रमांक ४१० । २. जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, पृ० ५९२, लेख क्रमांक ८४३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org