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१३६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय अधिकार में पाठभेद के साथ उत्तराध्ययन, अनुयोगद्वार और दशवेकालिक से अनेक गाथायें मिलती हैं। पंचाचार-अधिकार में सबसे अधिक २२२ गाथायें हैं। इसकी ५० से अधिक गाथायें उत्तराध्ययन और जीवसमास नामक श्वेताम्बर ग्रन्थ में समान रूप से पायी जाती हैं । इसमें जो षड्जीव निकाय का विवेचन है उसकी अधिकांश गाथायें उत्तराध्ययन के ३६वें अध्याय प्रज्ञापना, आवश्यकनियुक्ति और जीवसमास में हैं। इसी प्रकार ५ समिति गप्ति आदि का जो विवेचन उपलब्ध होता है वह भी उत्तराध्ययन के और दशवकालिक में किंचित भेद के साथ उपलब्ध होता है। इसी प्रकार मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार की ८३ गाथायें हैं। इनमें भी कुछ गाथायें श्वेताम्बर परम्परा को पिण्डनियुक्ति नामक ग्रन्थ में यथावत् उपलब्ध होती हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलाचार को अधिकांश सामग्री श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, पिण्डनियुक्ति, आउरपच्चक्खाण, महापच्चक्खाण, आवश्यकनियुक्ति, चन्द्रावेध्यक आदि श्वेताम्बर परम्परा के मान्य उपयुक्त ग्रन्थों से संकलित है । आश्चर्य तो यह लगता है कि हमारी दिगम्बर परम्परा के विद्वान् मूलाचार में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से मात्र २१ गाथायें समान रूप से उपलब्ध होने पर इसे कुन्दकुन्द की कृति सिद्ध करने का साहस करते हैं और जिस परम्परा के ग्रन्थों से इसकी आधी से अधिक गाथायें समान रूप से मिलती हैं उसके साथ इसकी निकटता को भी दृष्टि से ओझल कर देते हैं । मूलाचार की रचना उसी परम्परा में सम्भव हो सकती है जिस परम्परा में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यकनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, महापच्चक्खाण, आउरपच्चक्खाण आदि ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा रही है। नवीन की खोजों से यह स्पष्ट हो चुका है कि यापनीय परम्परा में इन ग्रन्थों का अध्ययन होता था। यापनीय परम्परा के अपराजितसूरि द्वारा उत्तराध्ययन और दशवकालिक पर लिखो गई टीकाएं इसी बात की पुष्टि करती हैं। इनका अध्ययन और अध्यापन उनकी परम्परा में प्रचलित था । जो परम्परा आगम ग्रन्थों का सर्वथा लोप मानती हो, उस परम्परा में मूलाचार जैसे ग्रन्थ की रचना सम्भव प्रतीत नहीं होती। यह स्पष्ट है कि जहाँ दक्षिण भारत में विकसित दिगम्बर अचेल परम्परा आगमों के विच्छेद की बात कर रही थी, वहीं उत्तर भारत में विकसित होकर दक्षिण की ओर जाने वाली इस यापनीय परम्परा में आगमों का
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