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यापनीय साहित्य : १३५ होता। अतः मूलाचार यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है, यह निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलाचार को यापनीय परम्परा का ग्रन्थ मानने के अनेक प्रमाण हैं। पं० नाथराम जी प्रेमी ने अपने उपरोक्त विवेचन में उन सभी तथ्यों का संक्षेप में उल्लेख कर दिया है जिनके आधार पर मूलाचार को कुन्दकुन्द की अचेल परम्परा के स्थान पर यापनीयों को अचेल परम्परा का ग्रन्थ माना जाना चाहिए। मैं पं० नाथूराम जी प्रेमी द्वारा उठाये गये इन्हीं मुद्दों पर विस्तार से चर्चा करना चाहूँगा।
सर्वप्रथम मूलाचार और भगवतीआराधना की अनेक गाथायें समान और समान अभिप्राय को प्रकट करने वाली होने के कारण 'प्रेमी जी' ने इसे भगवतीआराधना की परम्परा का ग्रन्थ माना है। उन्होंने इस तथ्य का भी संकेत किया है कि मलाचार के समान ही भगवतीआराधना के भी कुछ ऐसे मन्तव्य हैं जो अचेल दिगम्बर परम्परा से मेल नहीं खाते और यदि भगवतीआराधना दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ न होकर यापनीय परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध होता है तो फिर मूलाचार को भी हमें यापनीय परम्परा का ही ग्रन्थ मानना होगा।
वैसे तो प्रेमी जी ने मात्र भगवती आराधना से इसकी गाथाओं की समरूपता की चर्चा की है, परन्तु बात यहीं समाप्त नहीं होती । मूलाचार में श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अनेक ग्रन्थों की गाथायें समान रूप से उपलब्ध होती हैं। उनमें शौरसेनी और अर्धमागधी अथवा महाराष्ट्री के अन्तर के अतिरिक्त कहीं किसी प्रकार का अन्तर भी नहीं है। मूलाचार के बृहत्प्रत्याख्यान नामक द्वितीय अधिकार में अधिकांश गाथायें महापच्चक्खाण और आउरपच्चक्खाण से मिलती हैं । मूलाचार के बृहत् प्रत्याख्यान और संक्षिप्त प्रत्याख्यान इन दोनों अधिकारों में क्रमशः ७१ और १४ गाथायें अर्थात् कुल ८५ गाथाएँ हैं। इनमें से ७० गाथायें तो आतुरप्रत्याख्यान नामक श्वेताम्बर परम्परा के प्रकीर्णक से मिलती हैं । शेष १५ गाथाओं में भी कुछ महापच्चक्खाण एवं चन्द्रावेध्यक में मिल जाती हैं । ये ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णकों के रूप में आज भी स्वीकार्य हैं। पुनः अध्याय का नामकरण भी उन्हीं ग्रन्थों के आधार पर है। इसी प्रकार मूलाचार के षडावश्यक अधिकार की १९२ गाथाओं में से ८० गाथायें आवश्यकनियुक्ति से समान रूप से उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त इसी
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