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११० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि को शताधिक गाथाओं के समान होने के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि मूलाचार, आवश्यकनियुक्ति, आतुर-प्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि का रचयिता एक ही है ? वस्तुतः ऐसा कहना दुस्साहसपूर्ण होगा । हम मात्र यही कह सकते हैं कि इन्होंने परस्पर एक दूसरे से अथवा अपनी ही पूर्व परंपरा से ये गाथाएं ली हैं। दिगम्बर परम्परा में मान्य पंचसंग्रह (प्राकृत) में 'सतक' और 'सित्तरी' दोनों ग्रन्थ समाहित है। श्वेताम्बर परम्परा के सतक और सित्तरी से जब इनकी तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि २-३ गाथाओं को छोड़कर दोनों की सम्पूर्ण गाथायें एक समान है, अन्तर मात्र महाराष्ट्री और शौरसेनी प्राकृत का है।
कसायपाहुडचूर्णि के अतिरिक्त कम्मपयडी, सतक और सित्तरीचूर्णि मूलतः श्वेताम्बर भण्डारों से ही उपलब्ध हुई हैं और श्वेताम्बर परम्परा में ही प्रचलित रही हैं। यदि हम उनकी भाषा का विचार करें तो स्पष्ट रूप से यह निश्चित हो जाता है कि दोनों की परम्पराएँ भिन्न हैं। जहाँ कषायपाहुडचूणि शौरसेनी प्राकृत में उपलब्ध होती है वहाँ कम्मपयडी चूर्णि, सतकचूर्णि और सित्तरीचूर्णि महाराष्ट्री प्रभावित अर्धमागधी में उपलब्ध हैं। आज तक न तो श्वेताम्बर परम्परा का कोई ऐसा ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है जो शौरसेनी प्राकृत में रचा गया हो और न दिगम्बर तथा यापनीय परम्परा में ऐसा ग्रन्थ पाया गया है जो महाराष्ट्री प्राकृत में लिखा गया हो । यह निर्विवाद है कि न तो श्वेताम्बरों ने शौरसेनी प्राकृत को अपने लेखन का आधार बनाया और न ही यापनीय और दिगम्बर परम्परा ने अर्धमागधी तथा महाराष्ट्रो प्राकृत को कभी अपनाया । हाँ इतना अवश्य हुआ है कि जब किसी यापनीय या दिगम्बर आचार्य ने श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अर्धमागधो अथवा महाराष्ट्री प्राकृत ग्रन्थों के आधार पर कोई रचना की तो अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव आ गया। इसी प्रकार जब किसी श्वेताम्बर आचार्य ने किसी शौरसेनी प्राकृत के ग्रन्थ को आधार बनाकर कोई रचना की तो उस पर शौरसेनी प्राकृत का प्रभाव आ गया है । यद्यपि शौरसेनी प्रभावयुक्त महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थों में तीर्थोद्गालिक प्रकीर्णक को छोड़कर अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है, जो अनेक प्रश्नों पर श्वेताम्बर मान्यता से भिन्न है । जबकि अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव से युक्त शौरसेनी प्राकृत के अनेकों ग्रन्थ हैं। प्रायः यापनीय और दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों पर अर्धमागधी या महाराष्ट्री का प्रभाव देखा
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