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१०४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
नियुक्ति में गाथा क्र० ३१ से आगे और विशेषा भाष्य में गाया क्र० ६०४ से यथावत् मिलती है ।
षट्खण्डागम और प्रज्ञापना के मूल स्रोत की यह एकरूपता यही सूचित करती है कि षट्खण्डागम का विकास भी उसी धारा से हुआ है जिसमें प्रज्ञापना, की रचना हुई । यद्यपि षट्खण्डागम में कुछ स्थल तो ऐसे हैं जो प्रज्ञापना की अपेक्षा भी प्राचीन परम्परा का अनुसरण करते हैं किन्तु षट्खण्डागम में अनुयोगद्वार के माध्यम से जो व्याख्या - शैली अपनायी गयी है, उसमें नय-निक्षेप पद्धति का जो अनुसरण पाया जाता है वह प्रज्ञापना में उपलब्ध नहीं है और इस दृष्टि से प्रज्ञापना षट् खण्डागम की अपेक्षा प्राचीन प्रतीत होता है । उसी प्रकार प्रज्ञापना में गुणस्थान सिद्धान्त का कोई भी निर्देश उपलब्ध नहीं होता, जबकि षट्खण्डागम में तो गुणस्थान सिद्धान्त विवेचन का मुख्य आधार रहा हैं। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रज्ञापना को अपेक्षा षट्खण्डागम परवर्ती है । जहाँ प्रज्ञापना ईसा पूर्व प्रथम शती की रचना है वहाँ षट्खण्डागम ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी के पूर्व की रचना नहीं है, फिर भी दोनों में विषयवस्तु एवं शैलीगत साम्य यही सूचित करता है कि दोनों के विकास का मूल स्रोत एक ही परम्परा है ।
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प्रो० हीरालाल जैन और प्रो० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ने षट्खण्डागम की धवला टीका की पुस्तक १ खण्ड भाग १ के द्वितीय संस्करण की अपनी भूमिका में पं० दलसुख भाई मालवणिया के उपर्युक्त विचारों की समीक्षा की है, किन्तु वे भी यह ता मानते ही हैं कि षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में विषयवस्तुगत साम्य है चाहे वे यह नहीं मानें कि षट्खण्डागम पर प्रज्ञापना का प्रभाव है, किन्तु इतना तो मानना ही होगा कि इस समानता का आधार दोनों की पूर्व परम्परा एक होना है और यह सत्य है कि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही उत्तर-भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा के समान रूप से उत्तराधिकारी रहे हैं और इसीलिए दोनों की आगमिक परम्परा एक ही है तथा यही उनके आगमिक ग्रन्थों की निकटता का कारण है । षट्खण्डागम में स्त्री-मुक्ति का समर्थन और श्वेताम्बर आगमिक और नियुक्ति साहित्य से उसकी शैली और विषयवस्तुगत समानता यही सिद्ध करती है कि वह यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है ।
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देखें - षट्खण्डागम खण्ड १, भाग १, पुस्तक १ के द्वितीय संस्करण की भूमिका पृ०
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