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१०० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
एक ओर दिगम्बर परम्परा यह मानती है कि षट्खण्डागम् पर कुन्दकुन्द ने परिकम नामक प्राकृत व्याख्या' लिखी थी, किन्तु दूसरी ओर उसी षट्खण्डागम के रचयिता को कुन्दकुन्द की शिष्य परम्परा में दसर्वे क्रम पर स्थान देना कितना विरोधाभासपूर्ण है । यदि हम नन्दीसंघ पट्टावली को प्रमाण मानते हैं तो पूष्पदन्त और भूतबलि का काल ईसा की दूसरी या तीसरी शताब्दी के लगभग निश्चित होता है किन्तु इस अभिलेख के के अनुसार तो पुष्पदन्त और भूतबलि न केवल कुन्दकुन्द के पश्चात् अपितु उमास्वति, समन्तभद्र, पूज्यपाद, देवनन्दि, भट्ट अकंलक जिनसेन, गुणभद्र आदि के भी पश्चात् हुए हैं। भट्ट अकंलक का काल दिगम्बर विद्वानों ने सातवीं शताब्दी के लगभग माना है। अतः उक्त अभिलेख के अनुसार पुष्पदन्त और भूतबलि ८वीं शती के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं । इन सब विसंगतियों के कारण दिगम्बर परम्परा में उपलब्ध पट्टावलियाँ प्राचीन आचार्यों के सम्बन्ध में विश्वसनीय नहीं रह जातीं। जबकि कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की पट्टावलियों की प्रामाणिकता मथुरा के अभिलेखीय साक्ष्यों से सिद्ध हो चुकी हैं। जिस नन्दीसंघ की पट्टावली की प्रामाणिकता को हमारे विद्वानों ने बलपूर्वक स्थापित करने का प्रयत्न किया है। उसमें गौतम से लेकर भूतबलि तक ३३ आचार्यों की सूची दी गयी है। किन्तु इनमें कहीं भी कुन्दकुन्द का नामोल्लेख नहीं है, जबकि उसी की भूमिका रूप में प्रक्षिप्त ३ श्लोकों में उसे मूलसंघ नन्दीआम्नाय, बलात्कारगण, सरस्वती गच्छ और कुन्दकुन्दान्वय की पट्टावली कहा गया है। यदि ये भूमिकारूप ३ श्लोक इसो पट्टावली के अंश हैं तो फिर यह पट्टावली पर्याप्त परवर्ती ही सिद्ध होगी, क्योंकि बलात्कारगण का उल्लेख सन् १०७५ ई० के पूर्व नहीं मिलता है। स्वयं कुन्दकुन्दान्वय का, जिसकी यह पावली कही जातो है, उल्लेख भो ई० सन् ९३१ के पूर्व कहीं नहीं मिलता है। ऐसी स्थिति में पुष्पदन्त और भूतबलि की गुरु परम्परा और काल का निर्णय दि० पट्टावलियों और अभिलेखों के आधार पर कर पाना कठिन है । यद्यपि धवला और जयधवला में आये उनके उल्लखों से उनकी ऐतिहासिकता सुनिश्चित है। किन्तु इस आधार पर उनको
१. षट्खण्डागम धवला टीका समन्वित, खण्ड-१, भाग-१ पुस्तक-१,
प्रास्तावना पृ० ४२ २. वही प्रस्तावना, पृ०-२३ ३. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-३, प्रस्तावना, पृ० ६२
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