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________________ ९४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय व्याख्याओं के काल अर्थात् ६ठी शती से लेकर १५-१६वीं शती तक के अनेक आचार्यों ने इसका उल्लेख किया है। विशेषावश्यक भाष्य (ईस्वी सन् ६ठीं शती) की गाथा १७७५ में 'जोणीविहाण' के रूप में इस ग्रंथ का उल्लेख है ।' निशीथचूणि (लगभग ७वीं शतो) में आचार्य सिद्धसेन द्वारा योनिप्राभृत के आधार पर अश्व बनाने का उल्लेख है। मलधारगच्छीय आचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित विशेषावश्यक भाष्य टीका में इस ग्रन्थ के आधार पर अनेक विजातीय द्रव्यों के सहयोग से सपं, सिंह आदि प्राणी और मणि, स्वर्ण आदि पदार्थों को उत्पन्न करने का उल्लेख है। कुवलयमाला भी योनिप्राभृत में उल्लिखित रासायनिक प्रक्रियाओं का उल्लेख करती है। इसके अनुसार जोणोपाहुड में स्वर्ण सिद्धि आदि विद्याओं का उल्लेख है। जिनेश्वरसूरि ने कथाकोष-प्रकरण के 'सुन्दरीदत्त कथानक में जिनभाषित पूर्वगत यानि पाहुडशास्त्र का उल्लेख किया है। प्रभावक चरित (५।११५-१२२) में इस ग्रन्थ के आधार पर मछली और सिंह बनाने के निर्देश देते हैं। कुलमण्डनसरि द्वारा विक्रम संवत् १४७३ में रचित विचारामतसंग्रह (पृ० ९) में उल्लेख है कि अग्रायणीपूर्व से निर्गत यानिप्राभृत के कुछ उपदेशों की देशना को धरसेन द्वारा वजित कहा गया है। इसमें उज्जंतगिरि (पश्चिमो सौराष्ट्र के गिरिनगर) में इस ग्रन्थ के उद्धार १. इति रुक्खायुवेदे जोणिविहाणे य विसरिसेहितो ।-विशेषावश्यकभाष्य (आगमोदय समिति) गाथा १७७५ । २. जोणिपाहुडातिणा जहा सिद्धसेणायरिएण अस्साए कता । -निशीथचूणि खण्ड २ पृ० २८१ ३. विशेषावश्यकभाष्य (मलधारगच्छोय हेमचन्द्र की टीका सहित) गाथा १७७५ की टीका । ४. णमो सिद्धाणं णमो जोणीपाहुडसिद्धाणं "मगवं सव्वण्णू जेण एयं सव्वं जोणीपाहुड भणियं । कुवलयमाला (उद्योतनसूरि)-भारतीय विद्या भवन पृ० १९६-९७ ५. जिगभासियपुन्वगए जोणोपाहुडसुए समुद्दिठें। एयंपि संघकज्जे कायव्वं धीरपुरिसेहिं॥ -जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास भाग ५ पृ० २०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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