SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय भाव से है। यदि ग्रन्थकार स्त्री, पुरुष, नपुसक वेद अर्थात् तत्सम्बन्धी काम वासना की उपस्थिति में भी दसवें गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास सम्भव मानता है, तो उसे स्त्री मुक्ति को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। यह कहना कितना अयुक्तिसंगत और अध्यात्मवाद के विपरीत होगा कि जीव स्त्री लिंग (स्त्रो शरीर) से युक्त होने पर तो पाँचवें गणस्थान से आगे आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकता किन्तु स्त्रीवेद (स्त्री सम्बन्धी कामवासना के) होते हुए वह दसवें गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास कर सकता है। यदि 'कसायपाहुड' के कर्ता यह स्वीकार करते हैं कि स्त्रीवेद की उपस्थिति में दसवें गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास सम्भव है तो वे स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं कर सकते। मात्र यही नहीं कसायपाहडकार यह भी मानता है कि नपुंसक, स्त्री और पुरुष अपगतवेदी होकर चतुर्दश गुणस्थान तक अपना आध्यात्मिक विकास करते हैं। कसायपाहुड की मूल गाथाओं में स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी शब्दों का प्रयोग न करके अपगतवेदी स्त्री, पुरुष, नपंसक ऐसा प्रयोग हआ है जबकि हिन्दी अर्थ करते हए दिगम्बर विद्वानों ने सर्वत्र 'वेद' शब्द की योजना कर दी है। यदि ग्रंथकार को स्त्रीमुक्ति-निषेध इष्ट होता तो वह मूल गाथाओं में भी 'वेद' शब्द की योजना करता' । वस्तुतः कसायपाहुड में रचना के समय तक स्त्रीमुक्ति का प्रश्न उपस्थित ही नहीं हुआ था। सातवीं शती के पूर्व इस विवाद की उपस्थिति का दोनों परम्पराओं में कोई संकेत नहीं मिला है । ८. कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि आर्य गुणन्धर, आर्यमंक्षु और आर्य नागहस्ति ने कसायपाहुड का जिस रूप में प्रतिपादन किया था, उससे अनेक स्थानों पर चूणिकार यतिवृषभ और जयधवलाटीकाकार मतभेद रखते थे। उदाहरणार्थ ग्रंथ के अर्थाधिकारों का मूलग्रन्थकार का वर्गीकरण चूणिसूत्र के कर्ता यतिवृषभ एवं जयधवलाकार के वर्गीकरण से भिन्न है। इससे यह फलित होता है कि मूल ग्रन्थकार, चूर्णिकार और टीकाकार की परम्परायें एक नहीं हैं। जहाँ मूल ग्रन्यकार श्वेताम्बर और यापनीयों के पूर्वज उत्तर भारत की अविभक्त निग्रन्थधारा के प्रतिनिधि हैं वहाँ चूर्णिकार यापनीय और टीकाकार दिगम्बर हैं। चूर्णिकार को यापनीय मानने का कारण यह है १. देखें कसायपाहुड गाथा ८-४५, ५०, ५१, ५२ और उनके अर्थ । २. कसायपाहुड भूमिका पृ० १४-१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy