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A NOTE ON JAINA MYTHOLOGY
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की कल्पना की । लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि असे असंख्यात द्वीप होते हुओ भी मनुष्य वस्ति ढाई द्वीपों में ही है। एक जंबुद्वीप, उसके ऊपर दूसरा द्वीप, उसके चारों ओर समुद्र और उस पर और एक द्वीप । लेकिन उस के आधे भाग में ही मनुष्य वस्ति है। अत: जैनों का भूगोल का नक्शा अढाई द्वीपों का है। कारन इन ढाई द्वीपों में ही उन्होंने मनुष्य वस्ति मानी है। उसके आगे नहीं। असा क्यों? उन्होंने एक दफे जो बात बतायी उस में परिवर्तन नहीं किया। इनके अलावा होनेवाले द्वीपों में कोई बलशाली शक्ति-देव जैसी-किसी को ले जा सकती है। लेकिन असे द्वीप में किसी का जन्म नहीं हो सकता। उसके बाद भूगोल में उन्होंने काल का बाँटवारा किया। उनके मतानुसार जिस में काल का उन्होंने बाँटवारा किया वह जंबुद्वीप ढाली की तरह गोल है। उसके मध्य में मेरु है। उसके पूर्व और पश्चिम भाग में हमेशा तीर्थकर होते हैं। उसके उत्तर-दक्षिण में सामान्य मनुष्यभूमि है। यह भोगभूमि है। गोल के दक्षिण में हम भारत वर्ष में रहने वाले लोग हैं । ऊपर आर्यावर्त है। इन दोनों को पूरा कालचक्र लागू होगा। याने किसी को भी निकृष्ट और उत्कृष्ट सुखका अनुभव यहाँ अलग अलग कालों में हो सकता है। बाकी के मध्य में हैं, जिनको थोडा सुख और थोडा दुख इनका अनुभव होता है। इसलिये इसे कर्मभूमि कहते हैं। दोनों ends में कर्मभूमि है। बीच में के लोगों को सुख का आरा मिलेगा, लेकिन तीर्थकर नहीं। तीर्थंकरों का लाभ मेरु के दोनों ओर होनेवालों को ही मिलेगा । हम लोग और ऊपरवाले दुर्भागी हैं। उन्हें चौथे काल में तीर्थंकरों का लाभ मिलेगा : यह कर्मभूमि है । इसका रहस्य यही है कि इस भूमि में मनुष्य हरेक प्रकार के सुख-दुखका अनुभव कर सकता है। इतना ही नहीं लेकिन यहाँ का आदमी जहाँ जाना चाहें जा सकता है । चाहे मोक्ष या नरक । कुछ भूमि अंसी है कि जहाँ असे कृत्य नहीं हो सकते कि जिनके कारण किसी को नरक मिले। यही भूमि जैसी है कि जहाँ हम सब प्रकार के कर्म कर सकते हैं। और सब प्रकार के कर्मों का लाभ भी उठा सकते है। यह उस की विशेषता है। मुक्ति लेने के लिए किसी को भी महाविदर्भ में जन्म लेना होगा। इस तरह से उन्होंने काल और भूगोल की mythology निर्मित की। दरबारीलाल कोठिया:
तीर्थंकर के अवतीर्ण होने के समय इन्द्रादि का आसन हिल जाता है और इन्द्र स्वयं तीर्थंकर पर अभिषेक करते हैं यह बात कबसे आयी ? डी. डी. मालवणिया: ... यह बात जैन पुराण लिखे जाने लगे तभी से शुरू हुश्री । पुराने जैन आगम में इसका कोई जिक्र नहीं है। J..17