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________________ 256 STUDIES IN JAINISM आवश्यकता नहीं है। लेकिन और सबके लिए अपने गुणवृद्धि के लिए मूर्तिपूजा आवश्यक है। अब विचार करेंगे जैन mythology के बारे में । समग्र जैन साहित्यमेंचाहे वह श्वेतांबर हो या दिगंबर-जो आचारांग है वह प्रथम बात है, द्वितीय नहीं । उसे मैंने इसलिए टटोला कि उसपर से भगवान् महावीर ने कहाँ mythology का प्रयोग किया है या नहीं यह जान पडे। मुझे तो कुछ मिला नहीं। लेकिन धीरे धीरे आगे बढ़ने से जैन धर्म की विशेष रूप से स्थापना होती गयी। इसी अवस्था से तीर्थंकरों की शब्दावलि शुद्ध हो गयी । प्राचीन आगमों में तीर्थंकर शब्द भी नहीं है, अर्हत्, जिन आदि शब्द हैं । लेकिन साहित्य में तीर्थंकर शब्द आने की शुरुआत होते ही तीर्थंकरों की mythology भी प्रविष्ट हो जाती है । बौद्ध साहित्य में एक बुद्धकाय है, बल्कि उसके अनेक रूप है । परंतु दूसरी ओर से २४ बुद्ध यह भी विचार आया। जैनों ने तीर्थंकरों की एक के बाद एक ऐसी कल्पना की। तो भी उनकी संस्था २४ हुई । उदाहरणार्थ ऋषभदेव ने कहा कि उनका पौत्र २४ वा तीर्थकर होगा। ऋषभदेव ने जैसे अंतिम तीर्थकर के बारे में कहा वसे ही पहले बुद्ध ने अंतिम बुद्धदेव के बारे में कहा। बौद्ध विचार और साहित्यमें जैसे १ बुद्ध, १० अवतार, २४ अवतार, विभूतियाँ आदि रूप में बुद्धों की संख्या बढी उसी तरह जैन विचार और साहित्य में तीर्थकरों का विकास हुआ । जैनों ने केवल २४ ही तीर्थकर नहीं माने, अपितु अतीत और अनागत काल के भी तीर्थंकर माने । इसी संदर्भ में उन्होंने देश और काल की mythology उपस्थित की। इनमें से पहली कौनसी यह एक विचारणीय प्रश्न है। तथापि मुझे ऐसा लगता है कि भूगोल पहले आया और उसके साथ तीर्थंकरों की और काल की mythology को बाद में जोड़ा गया। इतना ही मैं सामान्य रूप से कह सकता हूँ। हो सकता है कि मेरा मंतव्य गलत है। इस संबंध में एक सवाल उठा --- इस समय भारत वर्ष में तीर्थकर नहीं है और हो ही नहीं सकता। लेकिन यहाँ नहीं है तो कहाँ है? सब लोगों के भगवान हैं तो जैनों के ही क्यों नहीं? तो इसी पर से विचार आया की हमारे यहाँ अभी भी तीर्थंकर मौजूद हैं। ऐसे एक कल्पना के साथ उत्तरोत्तर युक्तियाँ वढ जाती हैं। किसी भी एक तीर्थंकर के बारे में तो १७० बातें उठायीं गयी है । पहले जब तीर्थकर का वर्णन होता था तो जन्म आदि पाँच-सात बातें बनायी जाती थी। लेकिन जैसे जैसे समय वढते गया वैसे वैसे एक तीर्थंकर के बारे में १७० बाते बताने का तरीका शुरू हुआ। यह बात हुश्री तीर्थंकरों की। अब विचार करेंगे भूगोल के बारे में । हिन्दुओं में तो सप्तद्वीपा पृथ्वी है। इस से जैनों का सन्तोष नहीं हुआ और उन्होंने असंख्यात द्वीपवाली पृथ्वी
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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