________________
215
प्रमाणों से नयों का भेद
अनुमान आदि में नहीं । इसलिये व्यवहार नय भी शब्द पर आश्रित है । ऋजुसूत नय के लिये तत्त्वार्थ भाष्य का वचन है- सतां साम्प्रतानामर्थानां अभिधानपरिज्ञानमृजुसूत्र: । ( त. भा. १।३५ ) यहाँ पर स्पष्ट रूप से विद्यमान अर्थों के जो वाचक शब्द हैं उनके ज्ञान को ऋजुसूत्र कहा है ।
इस प्रकार नैगम-संग्रह-व्यवहार और ऋजुसूत्र, जो चार अर्थनय कहे जाते हैं, वे शब्द पर आश्रित हैं, यह उनके स्वरूप से स्पष्ट हो जाता है । साम्प्रत समभिरूढ और एवंभूत नय तो शब्द पर ही मुख्य रुप से आश्रित हैं । इसलिये उनके शब्दात्मक होने में किसी प्रकार की शंका नहीं हो सकती ।
कोई भी नय हो, अर्थनय वा शब्दनय, शब्द सुनने के अनंतर अपेक्षा से उत्पन्न होना नयात्मक होने के लिये आवश्यक है । सम्मतिकार आचार्य सिद्धसेन कहते हैं'जावइया वयण पहा, तावइया चेव होंति नयवादा' (सन्मति - ३।४७ ) यहाँ भी स्पष्ट रूप से वचन के मार्गों को अर्थात् प्रकारों को नयवाद के रूप में कहा गया है ।
भट्ट अकलंक देव के लघीयस्त्रय की विवृति में ( न्यायकुमु. २पृ. ७८३) स्पष्ट कहा है - तीन कालों के साथ संबंध रखनेवाले जो अनेक द्रव्य और पर्याय हैं, उनको नय प्रकाशित करते हैं । इसलिये क मतिज्ञान से भेद नहीं हो सकते । मतिज्ञान विद्यमान
अर्थों का प्रकाशक है । मन के द्वारा जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है वह स्मृति - प्रत्यभिज्ञानचिन्ता और अभिनिबोध स्वरूप है । यह मानस मतिज्ञान भी कारणीभूत मतिज्ञान जिस अर्थ को प्रकाशित करता है उसके विषय में होता है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ' के इस भेद को तत्त्वार्थ भाष्य में भी कहा गया हैं- 'वे कहते हैं, जो मतिज्ञान है वह उस अर्थ को प्रकाशित करता है जो उत्पन्न है और नष्ट नहीं है और जो वर्तमान काल में है | परंतु श्रुतिज्ञान तीन कालों के विषय में होता है । इसके अतिरिक्त वह जो उत्पन्न है और जो नष्ट है और जो उत्पन्न नहीं है उन अर्थों को भी प्रकाशित करता है ।' ( तत्त्वार्थ भाष्य - १।२० )
जैन तार्किकों के ये वचन नयों को स्पष्ट रूप से श्रुतज्ञान के भेद रूप में प्रकट करते है ।
न्यायविशारद न्यायाचार्य श्री उपाध्याय यशोविजय जी भी नय के लक्षण में कहते हैं- "सत्त्वासत्त्वाद्युपेतार्थेष्वपेक्षावचनं नयः ।
न विवेचयितुं शक्यं विनाऽपेक्षां हि मिश्रितम् ||२|| " जो पदार्थ सत्त्व असत्व आदि धर्मों से युक्त है उनमें किसी नियत धर्म को प्रकार रूप से प्रतिपादित करनेवाला अपेक्षा नामक शाब्दबोध जिसके द्वारा उत्पन्न हो, वह वाक्य नय वाक्य है । अपेक्षात्मक जो शाब्दबोध है, वह ज्ञान नयात्मक ज्ञान है । जब कोई कहता है घट है तब श्रोता कहता है इस वाक्य से मुझे घट के विषय में ज्ञान उत्पन्न हुआ है । श्री उपाध्याय जी कहते