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________________ स्यावाद : एक चिन्तन 189 का कोई अर्थ ही नहीं रह जावेगा । अतः जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह अनिर्वचनीय है, निरपेक्ष रूप से नहीं, सत्ता अंशतः निर्वचनीय है और अंशतः अनिर्वचनीय । क्योंकि यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल है। इस प्रकार पूर्व निर्दिष्ट छः अर्थों में से पहले तीन को छोड़कर अन्तिम तीनों को मानने में उसे कोई बाधा नहीं जाती है । मेरी दृष्टी में अवक्तव्य भंग का भी एक ही रूप नहीं है, प्रथम तो "है" और "नहीं है" ऐसे विधि प्रतिषेध का युगपद् (एक ही साथ) प्रतिपादन सम्भव नहीं है; अतः अवक्तव्य भंग की योजना है। दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व का कथन सम्भव नहीं है ! अत: वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है। तीसरे अपेक्षाएँ अनन्त हो सकती है किन्तु अनन्त अपेक्षाओं से युगपद् रूप में वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन सम्भव नहीं है इसलिए भी उसे अवक्तव्य मानना होगा। इसके निम्न तीन रूप है। (१) (अ', अ२)य उ अवक्तव्य है, (२) ~ य उ अवक्तव्य है (३) (अ)य 5 उ अवक्तव्य है। सप्तभंगी के शेष चारों भंग संयोगिक हैं । विचार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की दष्टि से इनका महत्व तो अवश्य है किन्तु इनका अपना कोई स्वतंत्र दृष्टिकोण नहीं है, ये अपने संयोगी मूल भंगों की अपेक्षा को दृष्टिगत रखते हुए ही वस्तु-स्वरूप का स्पष्टीकरण करते है। सप्तभंगी और त्रिमूल्यात्मक तर्कशास्त्र : ___ वर्तमान युग में पाश्चात्य तर्कशास्त्र के विचारकों में ल्युकासिविच ने एक नयी दृष्टि दी है, इसके अनुसार तार्किक निर्णयों में केवल सत्य, असत्य ऐसे दो मूल्य ही नहीं होते अपितु सत्य असत्य और सम्भावित सत्य ऐसे तीन मूल्य होते हैं । इसी सन्दर्भ में डा. एस. एस. बारलिंगे ने जैन न्याय को त्रिमूल्यात्मक सिद्ध करने का प्रयास जयपुर की एक गोष्टी में किया था२७। यद्यपि जहाँ तक जैन न्याय या स्याद्वाद के सिद्धान्त का प्रश्न है उमे त्रिमुल्यात्मक माना जा सकता है क्योंकि जैन न्याय में प्रमाण, सुनय और दुनय ऐसे तीन अंग माने गये। इसमें प्रमाण सुनिश्चित सत्यताका, सुनय सम्भावित सत्यता का और दुर्नय असत्यता के परिचायक है । पुन: जैन दार्शनिकों ने प्रमाण वाक्य और नय वाक्य ऐसे दो प्रकार के वाक्य मान कर प्रमाण वाक्य कोसकलादेश (सुनिश्चित सत्य या पूर्ण सत्य) और नय वाक्य को विकलादेश (सम्भावित सत्य या आंशिक सत्य) कहा है। नय वाक्य को, न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य, अत: सत्य और असत्य क मध्य एक तीसरी कोटि आंशिक सत्य या सम्भावित सत्य की मानी जा सकती है। पुनः वस्तुतत्व की अनन्त धर्मात्मकता एवं स्वाद्वाद के सिद्धान्त भी सम्भावित
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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