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( ४ ) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से
STUDIES IN JAINISM
अवक्तव्य मानना । अर्थात यह कि वस्तुतस्व
अनुभव से तो आ सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता ।
( ५ ) सत् और असत् दोनों को युगपद् रूप से स्वीकार करना, किन्तु उसके युगपद् कथन के लिए कोई शब्द न होने के कारण अवक्तव्य कहना |
( ६ ) वस्तुतत्त्व अनन्त धर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्व के धर्मों की संख्या अनन्त है किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए उसमें जितने धर्म हैं, उतने वाचक शब्द नहीं है । अतः वाचक शब्दों के अभाव के कारण उसे अंशतः वाच्य और अंशत: अवाच्य मानना ।
यहां यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है कि जैन विचार परम्परा में इस raक्तव्यता के कौन से अर्थ मान्य रहे हैं। सामान्यतया जैन परम्परा में अव्यक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं रहे हैं । उसका मान्य अर्थ यही है कि सत् और असत दोनों का युगपत् विवेचन नहीं किया जा सकता है इसलिए वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है । किन्तु यदि हम प्राचीन जैन आगमों को देखें तो अवक्तव्यता का यह अर्थ अन्तिम नहीं कहा जा सकता है । आचारांग सूत्र में आत्मा के स्वरूप को जिस रूप में वचनागोचर कहा गया है वह विचारणीय है । वहां कहा गया है कि "आत्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का विषय नहीं है । वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। वहां वाणी मूक हो जाती है; तर्क की वहां तक पहुंच नहीं है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है, अर्थात् वह वाणी विचार और बुद्धि का विषय नहीं है । किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता है क्योंकि उसे कोइ उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है । उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके " २५ इसे देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी का माध्यम नहीं बनाया जा सकता है । पुनः वस्तुतत्व की अनन्त धर्मात्मकता और शब्द संख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तुतत्व को अवक्तव्य माना गया है। आचार्य नेमीचन्द्र ने गोमठ सार में अन् अभिलाप्य भाव का उल्लेख किया है । वे लिखते हैं कि अनुभव में आये अवक्तव्य भावों का अनन्तवां भाग ही कथन किया जाने योग्य है । अतः यह मान लेना उचित नहीं होगा कि जैन परस्परा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ मान्य है । इस प्रकार जैन दर्शन में अवक्तव्यता के चौथे पांचवे और छठे अर्थ मान्य रहे हैं । फिर भी हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि सापेक्ष और अवक्तव्यता और निरपेक्ष अवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्यता को स्वीकार करती है, निरपेक्ष को नहीं । अर्थात् वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व पूर्णतया वक्तव्य तो नहीं है किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य भी नहीं है । यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवक्तव्य अर्थात् अनिर्वचनीय मान लेंगे तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान प्रदान
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