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________________ 184 STUDIES IN JAINISM किये गये गुणधर्म का उसी अपेक्षा से निषेध करना नहीं है, अपितु या तो प्रथम भंग में अस्ति रूप माने गये गुण-धर्म से इतर गुण-धर्मों का निषेध करना है अथवा फिर अपेक्षा को बदल कर उसी गुण-धर्म निषेध करना होता है और इस प्रकार द्वितीय भंग प्रथम भंग के कथन को पुष्ट करता है, खण्डित नहीं । यदि द्वितीय भंग के कथन को उसी अपेक्षा से प्रथम भंग का निषेधक या विरोधी मान लिया जावेगा तो निश्चय ही यह सिद्धान्त संशयवाद या आत्म-विरोध के दोषों से ग्रसित हो जावेगा, किन्तु ऐसा नहीं है। यदि प्रथम भंग में स्यादस्त्येव घट: का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा है और द्वितीय भंग में 'स्यानास्त्येव घट:' का अर्थ किसी अपेक्षा से घड़ा नहीं है ऐसा करेंगे, तो आभासी रूप से ऐसा लगेगा कि दोनों कथन विरोधी है। क्योंकि इन कथनों के भाषायी स्वरूप से यह आभास होता है कि इन कथनों में घट के ही अस्तित्व और नास्तित्व को सूचित किया गया है। जबकि जैन आचार्यों की दृष्टि में इन कथनों का बल उनमें प्रयुक्त “स्यात्' शब्द में है, वे यह नहीं मानते हैं कि द्वितीय भंग प्रथम भंग में स्थापित सत्य का प्रतिषेध करता है । दोनों भंगों में घट के सम्बन्ध में जिनका विधान या निषेध किया गया है वे अपेक्षाश्रित धर्म हैं न कि घट का स्वयंत्व का अस्तित्व या नास्तित्व । पुनः दोनों भंगों के 'अपेक्षाश्रित धर्म' एक नहीं है। भिन्न भिन्न है। प्रथम भंग में जिन अपेक्षाश्रित धर्मों का विधान है, वे अन्य अर्थात् स्वचतुष्टय के हैं और द्वितीय भंग में जिन अपेक्षाश्रित धर्मों का निषेध हुआ है, वे दूसरे अर्थात् परचतुष्टय के हैं । अतः प्रथम भंग के विधान और द्वितीय भंग के निषेध में कोई आत्मविरोध नहीं है । मेरी दृष्टि में इस भ्रान्ति का मूल कारण प्रस्तुत इस वाक्य में उस विधेय पद ( Predicate ) के स्पष्ट उल्लेख का अभाव है, जिसका कि विधान या निषेध किया जाता है । यदि 'नास्ति' पद को विधेय स्थानीय माना जाता है तो पुन: यहां यह भी प्रश्न उठ सकता है कि जो घट अस्ति रूप है, वह नास्ति रूप कैसे हो सकता है ? यदि यह कहा जावे कि पर द्रव्यादि की अपेक्षा से घट नहीं है, किन्तु पर द्रव्यादि घट के अस्तित्व के निषेधक कैसे बन सकता है ? यद्यपि यहां पूर्वाचार्यों का मन्तव्य स्पष्ट है कि वे घट का नहीं अपितु घट म पर द्रव्यादि का ही निषेध करना चाहते हैं । वे कहना यह चाहते हैं कि घट पट नहीं है या घट में पट आदि के धर्म नहीं है, किन्तु स्मरण रखना होगा कि - इस कथन में प्रथम और द्वितीय भंग में अपेक्षा नहीं बदली है। यदि प्रथम भंग में यह कहा जावे कि घड़ा मट्टी का है और दूसरे भंग में यह कहा जावे कि घड़ा पीतल का नहीं है तो दोनों में अपेक्षा एक ही है अर्थात् दोनों कथन द्रव्य की या उपादान की अपेक्षा से है । अब दूसरा उदाहरण लें। किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य है, किसी अपेक्षा से घड़ा नित्य नहीं है, यहां दोनों भंगों में अपेक्षा बदल जाती है। यहां प्रथम भंग में द्रव्य की अपेक्षा से घड़े को नित्य कहा गया और दूसरे भंग में पर्याय की अपेक्षा से घड़े को 'नित्य नहीं' (अनित्य) कहा गया है। द्वितीय भंग के प्रतिपादन के ये दोनों रूप भिन्न भिन्न है।
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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