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________________ 140 STUDIES IN JAINISM दरबारीलाल कोठिया: अर्थ नहीं हो सकता। सुरेंद्र बारलिंगे: आपके निबंध में असा अर्थ बताया गया है इसलिये मेरा सवाल । सागरमल जैन : असत् को वस्तुका धर्म कैसे कहा जाए ? दरबारीलाल कोठिया: असत् में वस्तुका अभाव होने से यह धर्म नहीं हो सकता। स्वयं के असत् का अभाव होने से वस्तु सत् होती है । तथापि स्वयं के असत् का अभाव ही वस्तु का कारन नहीं; वैसे ही पर के सत् का अभाव भी वस्तु के सत् का कारण नहीं। तो भी वस्तु का स्वरूपतः सत् और पररूपतः असत ऐसा स्वरूप मिलता है। . मो. प्र. मराठे : बीज, अंकुर आदि वृक्षके अंश कैसे ? दरबारीलाल कोठिया: वृक्ष के जितने उत्पादन है सब वृक्ष में आते हैं इस दृष्टि से मैंने बीज अंकुर आदि को वृक्ष के अंश कहा। मो.प्र. मराठे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर के अत्यंताभावात्मक कैसे हो सकते हैं ? दरबारीलाल कोठिया : उत्पादपूर्वक व्ययपूर्वक उत्पाद होता है । पूर्वपर्याय का पूर्ण विनाश होने पर उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होती है । इन दोनों में अनुस्यूत तत्त्व ही ध्रौव्य है । मो. प्र. मराठे : - एक-एक मिलके अनेक होते होंगे, किंतु एक-एक एकांत मिलके अनेकांत होता है यह कैसे माना जाए? दरबारीलाल कोठिया : खाली 'अंत' पद जादा लग गया। वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करने वाला एकांत अनेक धर्मों को ग्रहण करने वाला अनेकांत ।
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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