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________________ 106 STUDIES IN JAINISM यह मत युक्त नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त न्यायों से भी पूर्ववर्ती उक्त दृष्टिवाद श्रुत पाया जाता है और उसमें प्रचुर मात्रा में जैन न्याय के बीज समाविष्ट हैं । अतः उसका उदय उसी से मानना उपयुक्त है। दूसरी बात यह है कि ब्राह्मण न्याय और बौद्धन्याय में कहीं भी स्याद्वादका समर्थन नहीं है, प्रत्युत उसकी मीमांसा है । ऐसी स्थितिमें स्याद्वाद रूप जैनन्याय का उद्गम स्याद्वादात्मक दृष्टिवाद श्रुत से ही सम्भव है । सिद्ध सेन,१७ अकलंक और विद्यानन्दका भी यही मत है, अकलंकदेवने २० न्याय विनिश्चय के आरम्भ में कहा है कि 'कुछ गुणद्वेषी ताकिकोंने कलिकालके प्रभाव और अज्ञानता से स्वच्छ न्याय को मलिन बना दिया है। उस मलिनता को सम्यग्ज्ञानरूपी जल से किसी तरह दूर करनेका प्रयत्न करेंगे।' अकलंकके इस कथन से ज्ञात होता है कि जैनन्याय ब्राह्मणन्याय और बौद्धन्याय से पूर्व विद्यमान था और जिसे उन्होंने मलिन कर दिया था तथा उस मलिनता को अकलंक ने दूर किया । अतः जैनन्याय का उद्गम उक्त न्यायों से नहीं हुआ। यह सम्भव है कि उक्त न्यायों के साथ जैनन्याय भी फलाफूला हो। अर्थात् जैनन्याय के विकास में ब्राह्मणन्याय और बौद्धन्याय का विकास प्रेरक हुआ हो और उनकी विविध क्रमिक शास्त्र रचना जैनन्याय की ऋमिक शास्त्ररचना में सहायक हुई हो । समकालीनों में ऐसा आदान-प्रदान होना या प्रेरणा लेना स्वाभाविक जैन न्याय का विकास __काल की दृष्टि से जैन न्याय के विकास को तीन कालों में बांटा जा सकता है और उन कालों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते है - १. आदिकाल अथवा समन्तमद्रकाल (ई. २०० से ई. ६५० तक) २. मध्यकाल अथवा अकलंककाल (ई. ६५० से ई. १०५० तक) ३. अन्त्यकाल अथवा प्रभाचन्द्रकाल (ई. १०५० से ई. १७०० तक) १. आदिकाल अथवा समन्तभद्रकाल जैन न्याय के विकास का आरम्भ स्वामी समन्तभद्र से होता है। स्वामी समन्तभद्र ने भारतीय दार्शनिक क्षेत्र के जैन दर्शन क्षेत्र में युग प्रवर्तक का कार्य किया है। उनसे पहले जैन दर्शन के प्राणभूततत्व 'स्याद्वाद' को प्रायः आगमरूप ही प्राप्त था और उसका आगमिक तत्वों के निरूपण में ही उपयोग होता था तथा उसकी सीधी-सादी विवेचना कर दी जाती थी-विशेष युक्तिवाद देने की उस समय आवश्यकता नहीं होती थी। परंतु समन्तभद्र के समय में उस की आवश्यकता महसूस हुई, क्योंकि दूसरी-तीसरी शताब्दी का समय भारत वर्ष के इतिहास में अपूर्व दार्शनिक क्रान्ति का रहा है । इस समय विभिन्न दर्शनों में अनेक क्रान्तिकारी विद्वान् पैदा हुए हैं। यद्यपि महावीर और बुद्ध के उपदेशों से यज्ञप्रधान वैदिक-परम्परा का बढ़ा हुआ प्रभाव काफी कम हो गय था और श्रमण -
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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