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________________ 105 जैन न्याय : परिशीलन जैन-न्याय का उद्गम प्रकृत में जैन न्यायका परिशीलन अभीष्ट है । अत: प्रथमतः उसके उद्गम पर विचार प्रस्तुत किया जाता है। दृष्टिवाद अंग में जैन न्याय के प्रचुर मात्रा में उद्गम-बीज उपलब्ध हैं । दृष्टिवाद अंग के अंशभूत षट् खण्डागम में 'सिया पज्जता, सिया अपज्जत्ता;' 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा'९ जैसे 'स्यात्' शब्द और प्रश्नोत्तर शैली को लिए हुए प्रचुर वाक्य पाये जाते हैं, जो जैन न्याय की उत्पत्ति के बीज हैं । कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि आर्षग्रथों में भी जैन न्याय के कुछ और अधिक बीज मिलते हैं । 'सिय अत्थि णत्थि उहा', 'जम्हो' 'तम्हा' 'जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा प्रश्नोत्तरों को उठाकर उनमें विषयों की विवेचना को दृढ़ किया किया है। इससे प्रतीत होता है कि जैन न्याय का उद्भव दृष्टिवाद अंगश्रुत से हुआ है। दृष्टिवाद का जो स्वरूप वीरसेन आदि ने दिया है उससे भी उक्त कथन की पूरी दृष्टियों - वादियों से पुष्टि होती है। उसके स्वरूप में कहा गया है कि 'उसमें विविध की मान्यताओं का प्ररूपण और उनकी समीक्षा की जाती है।' यह समीक्षा हेतुओं एवं युक्तियों द्वारा ही सम्भव है। ___ श्वेताम्बर परम्पराके आगमों में भी “से केणठटेणं भंते, एवमुच्चईजीवाणं भंते? कि सासया असासया? गोयमा! जीवा सिय सासया सिय असासया । गोयमा! दव्वद्वयाए सासया भावयाए असासया" जैसे तर्क-गर्भ प्रश्नोत्तर मिलते हैं । 'सिया' या 'सिय' शब्द 'स्यात्' (कथंचिदर्थ बोधक) संस्कृत शब्दका पयार्यवाची प्राकृत शब्द है, जो स्थाद्वाद न्यायका प्रदर्शक है । यशोविजय ने १२ स्पष्ट लिखा है कि स्याद्वादार्थोदृष्टिवादार्णवोत्थः' - स्थावादार्थ - जैन न्याय दृष्टिवाद रूप अर्णव (समुद्र) से उत्पन्न हुआ है । यथार्थ में 'स्याद्वाद' जैन न्यायका ही पर्याय शब्द है । समन्तभद्र ने 3 समी तीर्थंकरों को स्थाद्वादी - स्याद्वादन्यायप्रतिपादक और उनके न्याय को स्थाद्वादन्याय बतलाया है। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ब्राह्मणन्याय और बौद्धन्याय के बाद जैन-न्यायका विकास हुआ है, इस लिए उसकी उत्पत्ति इन दोनों से मानी जानी चाहिए । छान्दो ग्योपनिषद् (अ. ७) में एक 'वाकोवाक्य' पास्त्र-विद्या का उल्लेख किया गया है जिसका अर्थ तर्कशास्त्र, उत्तर-प्रत्युत्तर शास्त्र, युक्ति-प्रतियुक्तिशास्त्र किया जाता है।१४ वात्स्यायन के न्यायभाष्य में भी एक आन्वीक्षिकी विद्या का, जिसे न्याय विद्या अथवा न्यायशास्त्र कहा गया है, कवन मिलता है। तक्षशिला के विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र एवं न्यायशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन के प्रमाण भी मिलते बताये जाते है।१६ इससे जैनन्याय का उद्भव ब्राह्मणन्याय और बौद्धन्याय से हुआ प्रतीत होता है ।
SR No.002008
Book TitleStudies in Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
PublisherIndian Philosophical Quarterly Publication Puna
Publication Year1984
Total Pages284
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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