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________________ ३१६ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature दुरुपयोग होने लगा । जिस के कारण दुरुपयोग होता था उसको धर्मशास्रों में पाप के नाम से पुकारा गया है । ऐसे पापों का आचरण निंदनीय और धृष्णास्पद माना गया है। जैन धर्म में हिंसा, असत्य, चौरी, मैथुन, परिग्रह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, माया, मृषावाद जैसे भावों का त्याग करने का विधान है। इस प्रकार के आचरण से मानव मन कलुषित होता है और दूसरों को पीड़ा होती है । अन्ततोगत्वा पर्यावरण की सुरक्षा नष्ट होती है। विश्व के महापापों की चर्चा करते हुए कोनार्ड लारेन ने कहा है कि १. आवश्यकता से अधिक जन संख्या में वृद्धि । २. प्रकृति के सभी क्षेत्रों में प्रदूषण का विस्तार । ३. जीवन के हर क्षेत्र में अति प्रतियोगिता । ४. अतिभोग के प्रति तीव्र लालसा । ५. जीवन कोशिकाओं का हास । ६. परंपरा से प्राप्त संस्कृति की अवहेलना । ७. एकान्तवाद एवं दुराग्रह का प्रचार । ८. अणुशास्त्रों का अन्धा निर्माण । उक्त सभी क्रियाओं का उदय असत् प्रवृत्तिओं के आचरण एवं सत् प्रवृत्तिओं के अनाचरण से होता है । जिसको जैन धर्म में पाप स्थानक के रूप में कहा है। जिस के कारण अनेक जीवों को पीड़ा होती है । सूक्ष्म या स्थूल जीवों की हत्या होती हो वे सभी क्रियाए त्याज्य है । पर्यावरण की रक्षा के लिए अहिंसा ही एक मात्र श्रेष्ठ मार्ग हो सकता है । सभी भारतीय धर्मों में अहिंसा को सर्वोत्कृष्ट स्थान दिया गया है। महाभारत में कहा है कि अहिंसा परमो धर्मः अर्थात् अहिंसा ही श्रेष्ठ धर्म है। किसी भी जीव की हत्या न हो, किसी भी जीव को पीड़ा न हो उसे अहिंसा कहा गया है । ऐसी अहिंसा का उद्भव क्षमापना और मैत्री भाव के द्वारा ही संभव है । इसीलिए जैन धर्म के श्रावक प्रतिक्रमण वंदित्तु सूत्र में कहा है कि __ "खामेमि सव्व जीवे सव्वे जीवा खमन्तु मे । मित्ति मे सव्व भूएसु वे मज्झं न केणइ ॥ वंदित्तु सूत्र-गा० ४९ ___ मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ, सब जीवों मुझे क्षमा करें । मेरी सभी से मैत्री है। मेरा किसी के साथ वैर नहीं है, ऐसी उत्तम भावना से ही अहिंसा के बीज पनपते है । तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में उमास्वाति ने जीवों के लक्षण की व्याख्या करते हुए कहा है किपरस्परोपग्रहों जीवानाम् । अर्थात् एक दूसरों पर उपकार करना ही जीवों का लक्षण है। आज उसके विपरीत आचरण के कारण अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुई है । जीवन में मत्स्यगलगलान्याय का ही प्रभाव दिखाई पड़ता है। अर्थात् जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है ठीक For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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