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________________ ३१७ अहिंसा, पर्यावरण एवं इरियावहियासुत्तं उसी प्रकार बलवान निर्बल को अधिक पीड़ा दे रहा है। मानव अपने को सर्वश्रेष्ठ मानकर अन्य सभी जीव संपदा का नाश करने लगा है उसके कारण अनेक जीवों का विनाश हो रहा है। और पर्यावरण की तुला असंतुलित हो गई है। उसकी समतुला बनाए रखने के लिए ही जैनधर्म का प्रधान सूत्र "जीओ और जीने दो" को ही जीवनमन्त्र बनाना चाहिए। यह बात सही है कि संसार में रहते हुए और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव को दूसरे सूक्ष्म या स्थूल जीवों का घात प्रतिघात का अवसर आता ही है ऐसी स्थिति में जीवन की क्रियाएँ यतनापूर्वक अर्थात् सजगतापूर्वक, विवेकपूर्वक करनी चाहिए जिस से दूसरे जीवों का कम से कम घात हो । साधक की जीवन शैली की चर्चा करते हुए दशवैकालिक सूत्र में कहा है कि जयं चरे जयं चिटे, जयं आसे जयं सये । जयं भुञ्जन्तो जयं भासंतो पाव कम्मं न बंधई ॥ दश० वै० अ० ४ गा० ३१ यतनापूर्वक चलना चाहिए, यतना पूर्वक बैठना चाहिए, यतनापूर्वक बोलना चाहिए, यतनापूर्वक सोना चाहिए, यतनापूर्वक खाना चाहिए और कार्य करना चाहिए जिस से पापकर्म का बन्ध नहीं होता है । चलने, बैठने, उठने, सोने आदि क्रियाएँ विवेकपूर्ण ढंग से करने से हिंसा पर विजय प्राप्त कर सकते है । प्रस्तुत सूत्र यही घोषणा करता है कि जीवन में विवेकपूर्ण व्यवहार होना चाहिए । यद्यपि मानव जीवन सर्वथा हिंसा रहित संभव कहना उद्घोष नहीं है । किन्तु अल्प हिंसा और विवेकपूर्ण जीवन अनेक जीवों को अभयदान दे सकता है । जीवन में विवेक का महत्त्व देखते हुए अहिंसा की व्याख्या में भी विकास पाया गया है । इसीलिए तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में हिंसा की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि "पमत्तयोगत् कायव्यपरोपणं हिंसा ।" प्रमाद के कारण किसी जीव की हत्या हो वह हिंसा है । यहाँ प्रमाद का अर्थ अविवेक पूर्ण या असजगता में की हुई क्रिया है । लोभ, क्रोध, मोह, माया जैसे भावों के कारण सजगता नष्ट हो जाती है और कोई एक जीव अन्य जीवों के घात का निमित्त बन जाता है। उसको रोकने के लिए उपभोगवाद नहीं किन्तु उपयोगवाद का ही प्रचार होना चाहिए । सभी क्रिया उपयोगपूर्वक करनी के स्थान पर चाहिए यही जैनधर्म का मूलसिद्धान्त है। उसके लिए जैन दर्शन में ईरियावहियं अर्थात् ईर्यापथिकी क्रिया का विधान किया है। जैन धर्म में सभी धार्मिक क्रियाओं के आदि में ईर्यापथिकी क्रिया अवश्य करनी पड़ती है । ईर्यावहियं सूत्र में सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की विराधना को दुष्कृत समझा है । और उस प्रकार के आचारण के लिए क्षमा याचना करना ही प्रस्तुत इरियावहिया सूत्र का सार है। ईर्यापथ सूत्र प्रतिक्रमण का सार है । श्री हरिभद्रसूरि ने आवश्यक टीका में इस सूत्र को गमनातिचार प्रतिक्रमण कहा है । दशवैकालिकसूत्र वृत्ति में उसकी इर्यापथ प्रतिक्रमण नाम से विवेचना की है। श्री आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति में इसी नाम का उपयोग किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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