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अहिंसा, पर्यावरण एवं इरियावहियासुत्तं
जितेन्द्र बी. शाह
आज समग्र विश्व में पर्यावरण के असंतुलन ने न केवल मानव जीवन के लिए अपितु समग्र जीवसृष्टि के लिए बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। औद्योगिक प्रगति, उपभोगतावाद और अतिविलासितता आदि के कारण प्राकृतिक संपदा का तेज गति से नाश हो रहा है। वन-संपदा, पशु-संपदा खनिज-संपदा, जल-संपदा का द्रुत गति से विनाश हो रहा है । इसके फल स्वरूप पर्यावरण का भी विनाश हो रहा है और कई तत्त्व तो आज शब्दकोषों और संग्रहालय के विषय मात्र ही बन कर रह गये है। मानव ने विकास के नाम पर विनाश का ही कार्य किया है। जब हम विकास के नतिजे पर दृष्टिपात करते हैं तब केवल विनाश ही विनाश नजर आता है । जल के प्रदूषण ने जलीय जीव सृष्टि और मानवजीवन को नष्ट करना प्रारंभ कर दिया है। औद्योगिक मशीनों के इंधन एवं वाहनों के इंधन से उत्पन्न वायु इतनी प्रदूषित हो चूकी है कि साँस लेना भी दूर्भर हो रहा है। औद्योगिक कचड़ों ने धरती को भी प्रदूषित कर दी है। उसके कारण धरती की उर्वरक शक्ति नष्ट हो रही है । पाँच हजार साल से जो धरती सतत फलती रही थी वह आज बंजर बन रही है। कीट नाशक दवाओं ने अन्न को प्रदूषित कर दिया है। जिस के कारण मानव एवं पशुओं के शरीर पर विकृत असर पड रहा है । कुछ हद तक स्वभाव भी परिवर्तित होने लगा है। उद्योगों के धुएँ ने आकाश को मलिन और जल में जहर घोल दिया है । इस प्रकार हवा, पानी, जमीन, अन्न प्रदूषित हो चूके है । अतः पर्यावरण की सुरक्षा एक बहुत ही विकट समस्या बन चूकी है । इसका समाधान पाने के लिए सभी देश प्रयासरत है।
मानव जीवन के चारों और रहने वाला प्राकृतिक वातावरण ही पर्यावरण है । जिस में भूमि, हवा, पानी और वनस्पति जगत सम्मिलित होता है। इसका विनाश मानव के असंयमित जीवन शैली के कारण हो रहा है। आज प्रकृति और मानव के सम्बन्ध का हास हो रहा है उसका कारण भी असंयम, तृष्णा, अविवेकंपूर्ण जीवन शैली है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही प्राकृतिक तत्त्वों एवं मानव जीवन के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का उपदेश दिया गया है। प्रत्येक तत्त्वों का विवेकपूर्वक उपयोग करने का सभी धर्म शास्त्रों में विधान मिलता है। किन्तु मानव जीवन में जैसे जैसे विवेक का नाश होता है । वैसे-वैसे अशुभ तत्त्वों का उदय होता है । प्राकृतिक तत्त्वों के उपयोग में कोई सर्वमान्य नियम न रहे और यथासंभव
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