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________________ ३०२ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature अर्थ :- भगवान् के रूकने पर वह आश्वस्त होती हुई भी क्षण भर आँसुओं को नहीं छोड़ा क्योंकि दूध का जला छाछ को भी फूंक कर पीता है । उस समय चन्दना की आँखों में अस्थिर और चञ्चल भाव डूब उतरा रहे थे। ३. इस श्लोक की अन्तिम दो पंक्ति में चन्दना की आँखो में चंचलभावों का डूबना उतराना कहा गया है । डूबना और उतराना क्रिया पानी में सम्भव है आँखों में नहीं । इसलिए यह मुख्यार्थ बाधित हुआ और अपनी सिद्धि के लिए अन्य अर्थ का आरोप कर लिया वह अर्थ है चन्दना की आँखे इतनी चंचल थीं कि उनसे अनेक भाव कभी प्रतीत होते थे तो कभी प्रतीत नहीं होते थे यह अर्थ लक्षणाजन्य है । इसका प्रयोजन है : महावीर स्वामी जब उसकी भिक्षा लेने वापस लौट रहे थे तब उसके नयन इतने चंचल थे कि यह कह पाना कठिन था कि कौनसा भाव प्रतीत हआ और कौन सा भाव तिरोहित हआ । अर्थात् भगवान महावीर आ रहे है इससे प्रसन्नता का भाव उत्पन्न हुआ । वे कहीं चले न जाँय इसलिए विषाद का भाव उत्पन्न हुआ। इस प्रकार उसकी दृष्टि में ये सब भाव एक एक करके प्रतीत और तिरोहित हो रहे थे । इसके अतिरिक्त अश्रुवीणा में अनेक श्लोक ऐसे हैं जिनमें लक्षणा (उपचार वक्रता) स्पष्ट प्रतीत होती है । जैसे श्लोक संख्या ६४ में कहा गया है : बोद्धं नालं स्वमतिरचिते जीवनस्याध्वनीह, गर्ताः शैला: कति च कति वा मोटनानि भ्रमा वा । अन्यं कञ्चित् व्रजति तनुमानेकमुलाय पूर्व मावर्तं तद्भवति सहसा विस्मृतिः प्राक्तनस्य ॥६४॥ इस श्लोक में जीवन का मार्ग, उसमें फिर गड्डे, पर्वत मोड़ और आवर्त का होना सर्वथा बाधित है क्योंकि ये सब तो पार्थिव मार्ग पर देखे जाते हैं जीवन में नहीं । हाँ, इनके समान दुःखकारी परिस्थितियाँ अवश्य आ जाती हैं जो जीवन की सुचारुता में बाधक होती हैं । यहीं अर्थ कवि को अभिप्रेत है जो लक्षणाजन्य है । इसका प्रयोजन है जीवन के दुःखों की भयंकरता प्रतिपादित करना । इसी प्रकार श्लोक श्लोक संख्या ६५, ६८, ७३, ७४ में लक्षणा के लक्षण देखें जा सकते हैं। सन्दर्भग्रन्थ : १. अश्रुवीणा-आचार्य महाप्रज्ञ, सम्पादक : डॉ० हरिशंकर पाण्डेय : प्रकाशक जैनविश्व भारती, लाडनँ । २. काव्यप्रकाश : आचार्य मम्मट, व्याख्या : डॉ० रामसागर त्रिपाठी, प्रका० मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली १९८५ । ३. निघण्टु तथा निरुक्त संपादक लक्ष्मणस्वरूप मोतीलालबनारसीदास, दिल्ली, १९८५ 000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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