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बीसवीं शताब्दी की जैन संस्कृत रचनाएँ, उनका वैशिष्ट्य
और प्रदेय
भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु'
जैन वाङ्मय अखिलभारतीय वाङ्मय का एक समृद्ध और सुसंस्कृत भाण्डागार है । एक तो आधुनिक युगीन संस्कृत साहित्य पर ही अध्ययन-अनुशीलन नगण्य जैसा है फिर जैन काव्यसाहित्य के अध्ययन-अनुशीलन की स्थिति तो और भी अधिक चिन्तनीय कही जायगी ।
मैंने अपने इस आलेख में संस्कृत के बीसवीं शताब्दी में प्रादुर्भूत, जैन रचनाकारों और उनकी रचनाओं का अनुशीलीन करने का विनम्र प्रयास किया है ।
वस्तुतः इस शताब्दी के जैन रचनाकारों और उनकी रचनाओं के आभामंडल से सम्पूर्ण संस्कृत वाङ्मय सुवासित हो उठा है ।
इस शताब्दी के जैन रचनाकारों में केवल जन्मना जैन ही नहीं हैं प्रत्युत जैनेतर वर्गों में उत्पन्न होकर जैन विषय पर रचना करने वाले बहुत से मनीषी भी सम्मिलित हैं । इस कालखण्ड में जैन काव्य की समृद्धि में केवल गृहस्थ मनीषियों का ही योगदान नहीं है प्रत्युत निर्ग्रन्थ आचार्यों, मुनियों और साध्वियों का प्रशस्त योगदान भी उल्लेखनीय है । अन्तर्विभाजन :
जीवन के बदलते सन्दर्भो और आवश्यकताओं के अनुरूप बीसवीं शताब्दी में संस्कृतभाषा में जैन विषयों पर बहु आयामी चिन्तन परम्परा से समृद्ध काव्यसाहित्य का सृजन हुआ है । इस शताब्दी के साहित्य को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं ।
१. मौलिक रचनाएँ २. टीका ग्रन्थ ।
३. अन्य ग्रन्थ ।
मौलिक रचनाओं के अंतर्गत इस काल खंड में विरचित, महाकाव्य, खण्डकाव्य-दूतकाव्य, स्तोत्रकाव्य और शतक ग्रन्थ सम्मिलित है । इनके अन्तर्गत चम्पूकाव्य, श्रावकाचार तथा नीति विषयक रचनाओं के साथ स्फुट रचनाओं का भी समावेश किया गया है । टीका ग्रन्थों के
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