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________________ अश्रुवीणा में उपचारवक्रता अर्थ :- भगवन् ! तुम स्त्रियों के लिए अपूर्व आशास्थान हो । स्त्रीजगत् अपने उचित स्थान को जानकर धन्य होगा । मेरी माता ने अपनी जिह्वा खींचकर कामोन्मत्त, अस्तमित नयन और क्रूर रथिक की आँखे खोल दी थी । उस समय आप ही दीप थे । इस श्लोक में "तत्र दीपस्त्वमेव" वाक्य का मुख्यार्थ है "वहाँ तुम ही दीपक थे" । अब महावीरस्वामी या किसी भी ऐसे व्यक्ति का दीपक होना सम्भव नहीं क्योंकि व्यक्ति एक चेतन जीव है जो अपना काम स्वयं कर लेता है जब दीपक एक निर्जीव पदार्थ है जो स्वयं कुछ नहीं कर सकता । इसलिए महावीर स्वामी और दीपक एक नहीं हो सकते । इसलिए मुख्यार्थ बाधित हुआ । अब मुख्यार्थ अपनी सिद्धि के लिए दूसरे अर्थ को आरोपित कर लेता है वह अर्थ है-हे भगवन् ! तुम मुझे दीपक की तरह ज्ञान का प्रकाश देने वाले थे । यही अर्थ कवि को विवक्षित है । इसमें गौणी लक्षणा है क्योंकि गुणों के आधार पर महावीर स्वामी पर दीपक का आरोप किया गया है । महावीर स्वामी लोगों को ज्ञान देकर अज्ञान दूर करते हैं तो दीपक अपना प्रकाश फैलाकर अन्धकार दूर करता है । यहाँ पर गौणी लक्षणा सिद्ध हो रही है । इसमें प्रयोजन है वह ज्ञान जो महावीर स्वामी ने धारिणी को दिया था वह दीप प्रकाश की तरह शीघ्र ही अज्ञान के अन्धकार को हटाने वाला था । यह व्यञ्जना से प्राप्त है । चित्राशक्तिः सकलविदिता हन्त युष्मासु भाति, रोद्धं यन्नाक्षमत पृतना नापि कुन्ताग्रमुग्रम् । खातं गर्ता गहन गहनं पर्वताश्चापगापि, मग्नाः सद्यो वहति विरलं तेऽपि युष्मत्प्रवाहे ।१२४। हे आँसुओं । आश्यर्य की बात है कि तुम्हारे अन्दर अद्भुत शक्ति सुशोभित है, जो सब जानते हैं । जिन्हें न तो सेना न उग्र नोक वाले भाले, न गहरी खाई, न गुफा, पर्वत व नदियाँ रोकने में समर्थ हैं उन्हें भी तुम्हारे विरल प्रवाह बहा देते हैं । इस श्लोक में मग्नाः सद्यो वहति विरल तेऽपि युष्मत्प्रवाहे । इस पंक्ति का मुख्यार्थ है वे भी तुम्हारे (आँसुओं के) विरल प्रवाह में बह जाते हैं । यह वाक्यार्थ उपपन्न नहीं होता क्योंकि एक तो अश्रुप्रवाह हो वह भी विरल और उसमें अनेक लोग बह जाय यह सम्भव नहीं है इसलिए यह वाक्य अपनी सिद्धि के लिए दूसरे अर्थ को आरोपित कर लेता है और तब उसका अर्थ होता है-आँसू देखकर लोगों को अधिक संवेदना होती है । यह हुआ लक्ष्यार्थ । इसका प्रयोजन यही है कि अश्रु के कारण लोग इतने संवेदनशील हो जाते हैं कि वे अपना कार्य छोड़कर उस दुःखी व्यक्ति के सहायतार्थ पहुँच जाते हैं यही आशय है-यानाक्षमत रोद्धं पृतना आदि वाक्य का । ये सारे अर्थ व्यंग्य हैं । आरक्तापि क्षणमथ न सा बाष्पसङ्गं मुमोच, प्लुष्टो लोक पिबति पयसा फूत्कृतैश्चापि तक्रम् । सम्प्रेक्षायामधृतितरलाचक्षुणां कातराणामासन् भावाः किमिव दधतो मज्जनोन्मज्जनानि ॥५२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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