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________________ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature इस श्लोक में श्रद्धा को सम्बोधित कर कहा गया है कि -हे श्रद्धे ! तुम जब बोलती हो तो आनन्द स्फुरित होता है । -जब चुप रहती हो तो दुःख उछलता है। -तुम सुख या दुःख को प्रयोग द्वारा परिभाषित करती हो । -तुम्हें छोड़कर अपनी मति में उलझे हुए तार्किक लोग इस विषय में मूढ हो जाते हैं । प्रथम वाक्य में श्रद्धा का बोलना और आनन्द का स्फुरित होना सम्भव नहीं है क्योंकि यह काम तो सचेतन जीव का है और श्रद्धा और आनन्द एक अमूर्त मानसिक स्थितियाँ है। तब यह वाक्य अपनी सिद्धि के लिए अपने नज़दीक के दूसरे अर्थ को आरोपित कर लेता है और अर्थ होता है - श्रद्धावान् व्यक्ति का कार्य सफल होता है और इस सफलता में श्रद्धा स्पष्ट परिलक्षित होती है। इस वाक्य में प्रयोजन है-श्रद्धा की अतिशयित उत्कृष्टता जो व्यङ्ग्य है । दूसरे वाक्य में श्रद्धा के अभाव में दुःख ही दुःख होता है-यह अर्थ लक्षणाजन्य है, जिसमें श्रद्धा की अपरिहार्यता द्योतित करना प्रयोजन व्यङ्ग्य है । तीसरे और चौधे वाक्य में श्रद्धावान् व्यक्ति सुखी और श्रद्धाहीन व्यक्ति दुःखी और मूढ़ होता है । यह अर्थ लक्षणा द्वारा सूचित है प्रयोजन वही श्रद्धा की अपरिहार्यता ।। चित्रं चित्रं तव सुमृदवः प्राणकोशास्तथापि कष्टोन्मेषे दृढतमगतौ मानवे चानुरागः । श्रद्धाभाजौ जगति गणिताः सन्दिहाना असंख्याः श्रद्धापात्रं भवति विरलस्तेन कश्चित्तपस्वी ॥५॥ -हे श्रद्धे ! तुम्हारे प्राणकोष अत्यन्त कोमल हैं फिर भी विपत्ति के बवण्डर में कठोर मति वाले मनुष्य में अनुराग रखती हो यह आश्चर्य की बात है । संसार में श्रद्धावान् बहुत कम लोग है जबकि सन्देहशील अधिक । इसलिए कोई विरल तपस्वी ही श्रद्धा का पात्र होता है। इस श्लोक की प्रथम दो पंक्तियाँ देखें तो श्रद्धा से उसके निवास की बात कही जा रही है। यहाँ भी पहले की तरह मुख्यार्थ बाधित हो रहा है क्योंकि श्रद्धा का किसी चेतनशील विवेकी पुरुष की तरह निवास करना सम्भव नहीं है । इसलिए यह वाक्य अपनी सिद्धि के लिए अपने निकट के दूसरे अर्थ को आरोपित कर लेता है । वह अर्थ है-श्रद्धा दृढ मति वाले व्यक्ति में ही रहती है । इसका प्रयोजन यह बताना है कि श्रद्धा एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जो अत्यन्त कोमल है और इसका बदला जाना नितान्त सम्भव है । ऐसी श्रद्धा का किसी दृढ बुद्धि वाले व्यक्ति में रहना ही सम्भव है । यह बात व्यंग्य है । 'आशास्थानं त्वमसि भगवन्' स्त्रीजनानामपूर्व, त्वत्तो बुद्ध्वा स्वपदमुचितं स्त्रीजगद् भावि धन्यम् । जिह्वां कृष्ट्वाऽसहनरथिकः काममत्तोऽम्बयामे, दृष्टिं नीतोऽस्तमितनयनस्तत्र दीपस्त्वमेव ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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