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अश्रुवीणा में उपचारवक्रता
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भी दही को बचाना चाहिए—यह अर्थ लक्षणा से प्राप्त होता है । यहाँ अन्वय की उपपत्ति होने के बावजूद तात्पर्य की उपपत्ति नहीं होती इसलिए यही अर्थ समीचीन प्रतीत होता है लक्षणा की पहली शर्त मुख्यार्थबाध का । दूसरी शर्त है तद्योगे । मुख्यार्थ से भिन्न किसी ऐसे अर्थ का लिया जाना जो मुख्यार्थ से सम्बद्ध हो और उसको लेने से मुख्यार्थ सम्बन्धी बाधा दूर हो सके। जैसे गङ्गायां धोषः से गङ्गा शब्द, अपने मुख्यार्थ गङ्गाप्रवाह को छोड़कर गङ्गातट कर लेता है जिससे उत्पन्न हुई बाधा दूर हो जाती है क्योंकि गङ्गातट पर घर होना सम्भव है । लक्षणा की तीसरी शर्त रूढि अथवा प्रयोजन है । कुशल शब्द का प्रयोग कार्य करने में जो चतुर हो उसके लिए होता है लेकिन यह अर्थ कुशल शब्द का मुख्यार्थ नहीं है । कुशल उसे कहते हैं जो कुश नाम की घास लाये क्योंकि कुश घास लाना आसान नहीं होता । उसे उखाड़ते समय हाथ के कटने का या चिर जाने का भय होता है इसलिए इसे उखाड़ते समय बहुत सावधानी रखनी पड़ती है । जो एक चतुर व्यक्ति ही कर सकता हैं । उसी अर्थ को व्यापक बनाकर किसी भी भाग में चतुर व्यक्ति को कुशल कहा जाने लगा । कुशल शब्द-चतुर अर्थ में रूढ हो गया । इस प्रकार इसमें रूढि से लक्ष्यार्थ का ज्ञान किया गया । गङ्गायां घोषः वाले उदाहरण में गङ्गा की धारा का लक्ष्यार्थ गङ्गातट एक विशेष प्रयोजन से लिया गया । वह प्रयोजन है गङ्गा की शीतलता और पवित्रता उसकी धारा के अतिरिक्त उसके किनारे पर भी व्याप्त है तो गङ्गा की शीतलता और पवित्रता की व्यापकता जो किनारे तक है बताना प्रयोजन है ।
इस प्रकार लक्षणा के ये तीन घटक हैं । ध्यान रहे कि लक्षणा एक शब्द की शक्ति है जो लक्ष्यार्थ प्राप्त कराने में सहायक होती है। अब हम लक्षणा के इन तीन घटकों की सहायता से अश्रुवीणा में घटित लक्षणा का अवलोकन करेंगे ।
इसमें सर्वप्रथम तो पहला श्लोक ही लक्षणामय है जिसमें श्रद्धा को सम्बोधित कर उसके स्वभाव का वर्णन किया जा रहा है। दुधमुंहे बच्चे से प्रेम करना, तर्क से खिन्न विद्वानों से प्रेम करना
और तर्क से विमुख रहना किसी सचेतन और विवेकी जीव का कार्य हो सकता है श्रद्धा ऐसी कोई जीव नहीं है वह तो मानव मात्र के मन की एक प्रक्रिया है जो सर्वथा अमूर्त है इसलिए श्रद्धे ! मुग्धान् शिशून् प्रणयसि आदि वाक्य में अन्वयानुपपत्ति के कारण मुख्यार्थ बाधित है। तब-श्रद्धा की निर्दोषता
और सरलता बताने के उद्देश्य से दूसरा अर्थ लिया जाता है कि श्रद्धा मुग्ध, भद्र, सरल-स्वभावी बच्चों को होती है साथ ही उन विद्वानों को भी होती है जो तर्क करके खिन्न हो गये हैं। पर उन्हें नहीं होती जो तर्क करते हैं । यहाँ प्रयोजनवती लक्षण लक्षणा है ।
दूसरे श्लोक में भी श्रद्धा को सम्बोधित कर उसमें मानव सहज क्रियाओं का आरोप किया गया है जो लक्षणाजन्य है । तीसरा श्लोक इस प्रकार है :
तत्रानन्दः स्फुरति सुमहान् यत्र वाणी श्रिताऽसि, दुःखं तत्रोच्छलति विपुलं यत्र मौनावलम्बा । किं वाऽऽनन्दः किमसुखमिदं भाषसे सप्रयोगं त्वामाश्लिष्य स्वमतिजटिलास्तार्किका अत्र मूढा ॥३॥ For Private & Personal Use Only
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