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________________ अश्रुवीणा में उपचारवकता दीनानाथ शर्मा 'अश्रुवीणा' आचार्य महाप्रज्ञजी का एक अप्रतिम गीतिकाव्य हैं । इसमें अनेकविध साहित्यिक सामग्री भरी पड़ी है। अलंकार, रस, ध्वनि, संवाद, गुण आदि तत्त्व इसमें कूट-कूट कर भरे हैं । डॉ० हरिशंकर पाण्डेय ने इस काव्य की व्याख्या करते समय इन सभी तत्त्वों की विशद चर्चा यथास्थान की है। वैसे तो इस काव्य का मुख्य रस भक्ति है लेकिन कहीं कहीं करुण आदि अन्य रसों का भी परिपाक हुआ दीखता है । इस काव्य में लक्षणा व्यञ्जना आदि शब्दशक्तियाँ भी परिलक्षित होती हैं । प्रस्तुत लेख में लक्षणा निरूपण पर विचार किया गया है । __ अश्रुवीणा में उपचारवक्रता पर विचार करने से पूर्व लक्षणा के स्वरूप पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है । काव्यशास्त्र के लिए प्रकाश स्तम्भ रूप काव्यप्रकाश के प्रणेता आचार्य गम्मट ने लक्षणा की व्यापक परिभाषा दी है। वैसे तो वेदार्थ निर्वचन के प्रसंग में सर्वप्रथम यास्क ने निरूक्त के दैवतकाण्ड में बहुभक्तिवादीनि ब्राह्मणवचनानि' कहकर भक्ति या लक्षणा की ओर स्पष्ट संकेत किया है । आगे चलकर मीमांसा सूत्र और भाष्य में अनेकशः लक्षणाविषयक संकेत प्राप्त होने लगे । मम्मट ने लक्षणा की जो परिभाषा दी है वह इस प्रकार है : मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात् । अन्योऽर्थों लक्ष्यते यत्सा लक्षणा आरोपिता क्रिया ॥ का० प्र० २.९ जब किसी वाक्य का प्रयोग किया जाता है तो सर्व प्रथम मुख्यार्थ की उपस्थिति होती है फिर जब उनके परस्पर अन्वय पर विचार किया जाता है तब देखा जाता है कि वाक्यगत शब्दों में परस्पर मिलने की शक्ति है या नहीं यथा गङ्गायां घोषः में गङ्गा और घोष में परस्पर मिलने की शक्ति नहीं है क्योंकि गङ्गा अर्थात् गङ्गा की धारा और उसमें फिर घर-ये दोनों एक साथ प्रयुक्त नहीं हो सकते क्योंकि गङ्गा की धारा घर का आधार नहीं बन सकती । इसलिए यहाँ अन्वय की अनुपपत्ति होती है । बहुतेरे उदाहरण ऐसे भी हैं जिनमें अन्वय की उपपत्ति तो हो जोती है लेकिन फिर भी लक्षणा वहाँ प्रवृत्त होती है जैसे-काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम् । इसमें कौओं से दही को बचाना सम्भव है । साथ ही कौओं जैसे अन्य जीव या बालक आदि से १. तिसु एव देवता इत्युक्तं पुरस्तात् । तासां भक्तिसाहचर्य व्याख्यास्यामः । अथौतानि अग्निभक्तीनि । निरुक्त -दैवतकाण्डम् पृ. २१२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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