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________________ २७६ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature इन सब में अधिकांश वर्णन परिपाटी के अनुसार है, तब भी कहीं कहीं कवि की सूक्ष्म निरीक्षणशक्ति और ऊर्वर कविकल्पना का भी परिचय मिलता है । - प्रत्येक ऋतुकाल में प्रकृति में सृष्टि में होनेवाले परिवर्तन का वर्णन तो प्रायः मिलता है। लेकिन यहाँ कवि ने प्रकृति के उपरांत मनुष्य प्राणियों और वातावरण का भी अलग-अलग ऋतुओं के आगमन से प्रभावित होने का वर्णन किया है, जो कवि की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। जैसे शिशिर ऋतु का प्रभाव इस प्रकार वर्णित है - मणिदीधितिदीपिकाप्रकाशे निशि कालागुरुपिंडधूपगर्थे । विनिवेशितहंसतूलशय्यापुलिने गर्भगृहे सहेमभित्तौ ॥४०॥ अवतंसितमालतीसुगंधिबिलसत्कुंकुमपंकादिग्धगात्रः । वनीताभुजपंजरोपगूढो युवराजशिशिरं स निविवेश ॥४१॥ ऐसे रमणीय समय में मालती की सुगंधि से सुगंधित, कुंकुम की पंक से लिप्त, युवराज वज्रनाभ अपनी प्यारी कंताओं के भुजपंजरों से बद्ध हुये मणिकिरणों के प्रकाश से प्रकाशित, कालागुरु के धूप से धूपित, हेम की भित्तियों से विशिष्ट भीतरे घर में हंस के समान श्वेत रूई की शय्या पर शिशिर ऋतु का आनंद लेने लगे ॥४०-४१।। जैसे वर्षाऋतु का प्रभाव इस प्रकार वर्णित है - अभिमानमुदस्य मस्तके कामदिशं न दधौ सवस्तुके का । वनितां मुमुचुनिशम्य के कामपि मेघागमजां मयूरकेकाम् ॥९६।। उस समय ऐसी कोई स्त्री न थी जो अपने अभिमान को तिलांजलि दे काम की आज्ञा का पालन न करने लगी हो और ऐसा कोई पुरुष न था जो वर्षाऋतु की सूचना देनेवाले मयूरों की हृदयहारिणी वाणी को श्रवण कर अपनी स्त्री के पास न आया हो । । ऋतु परिवर्तन के संधिकाल को भी चातुरी से आलोकित किया है ऋतुना समयेन तेन तीव्रादिव पद्माधिपनंदनप्रभावात् । विजहे वलयं दिशामशेष कृतपद्मालयवैभवक्षयेण ॥४२॥ शिशिरस्तरुषंडविप्लवानां स विधाता क्व नु वर्तते दुरात्मा । पटुकोकिलकूजितैर्वसंतो वनमित्याह्वयतीव संप्रविष्टः ॥४३।। पद्मालयों (सरोवर) के वैभव को नष्ट करने वाले उस शिशिर ऋतु ने ज्योंही पद्माधिपनंदन (वसंत) को आते हुये देखा तो भय से शीघ्र ही समस्त दिशा विदिशाओं को छोड़कर वह भाग गया, और उसके बाद ही "अरे ! वृक्षखंडों को तोडनेवाला वह दुरात्मा हिंसक शिशिर कहाँ गया ?" इस प्रकार के वचनों को कोकिलों के शब्दों से कहते हुये के समान वसंत शीघ्र ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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