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________________ श्री वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथ चरित का साहित्यिक मूल्यांकन २६९ होता है । आनंद के रूप में जन्म धारण करके तीव्र वैराग्य और तप से तीर्थंकर फल बांधकर अंत में विश्वसेन राजा की रानी ब्रह्मदत्ता के पुत्र के रूप में अवतार धारण करते हैं । कवि ने प्रथम, द्वितीय और तृतीय सर्ग में क्रमशः मरुभूमि और वज्रघोष हस्ति के पूर्वभवों की नानाविध घटनाओं का विस्तार से वर्णन किया है । यहाँ सुरम्य देश, पोदनपुरनगर, अरविंदराजा--मरुभूति और राजा का स्नेह और विश्वासमय संबंध, कमठ के अत्याचार, मरुभूति का बन्धुप्रेम, अरविंद राजा का स्वयंभूमुनि से दीक्षा लेना, मरुभूति का वज्रघोष हस्ति के रूप में जन्म और अरविंदमुनि से उपदेश प्राप्त कर व्रतों का पालन करना और कृकवाकु से काटने से स्वर्ग में जाना—स्वर्ग में उसकी स्थिति-आदि प्रसंगों का सुचारु ढंग से परिचय दिया गया है चतुर्थ से नवम सर्ग तक श्री पार्श्वनाथ स्वामी के रश्मिवेग, वज्रनाभि और आनंद के रूप में व्यतीत किये गये पूर्वभवों का आकर्षक शैली में आलेखन है, चौथे सर्ग के आरंभ में ही सुमेरु पर्वत और जंबूद्वीप के विदेहक्षेत्र के विजयाध की मनोहर पार्श्व भूमि में विद्युद्वेग और विद्युन्माला के पुत्र रश्मिवेग का राग, क्रोध, मान, माया और लोभ से विमुक्त तथा ज्ञान से युक्त • चरित्र का निरूपण किया गया है । रश्मिवेग मुनिव्रत धारण करते हैं और पूर्वभव के वेरी कमठ, जिसने अजगर का देह धारण किया था-वह उसे निगल जाता है । स्वर्गगमन के बाद वे अश्वपुर के राजा वज्रकीर्ति के पुत्र वज्रनाभि के रूप में उत्पन्न होते हैं । वज्रनाभि के लिये चक्ररत्न का प्रादुर्भाव, दिग्विजय करके चक्रवर्ती राजा बनना, चक्रवर्ती का ऐश्वर्य और बाद में वज्रनाभि का वैराग्य इन सब घटनाओं के साथ षड्ऋतुओं, युद्ध, नगर, वन-उपवन, जलाशय, स्त्री-पुरुषों का कामयोग आदि का आलंकारिक शैली में सुंदर वर्णन प्रस्तुत किया गया है । - इसके बाद अयोध्या में वज्रबाहु के आनंद नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हो कर मरुभूति का जीव, जिनयज्ञ और तपस्या द्वारा तीर्थंकर के सर्व गुणों से युक्त बनता है । कवि ने यहाँ जैन धर्म जिनेन्द्र की बड़ी प्रशस्ति और स्तुति की है । दस-ग्यारह और बारहवें सर्ग में पार्श्वनाथ स्वामी का गर्भ में आना, उनका जन्मकल्याणक, इन्द्रादि देवों द्वारा मेरु पर्वत पर भगवान् का अभिषेक और पूजा, बाल्यकाल, भगवान् का पंचाग्नितप को कुत्तप सिद्ध करने के लिये जाना, लकड़ी में से जलते नाग युगल को बाहर नमस्कार मंत्र द्वारा उनको मुक्त करना-तपस्वी का असर होना, विवाह के लिये पिता का आग्रह, पार्श्वनाथ स्वामी द्वारा वैराग्य के लिए इच्छा प्रगट करना, लौकांतिक देवों का प्रतिबोध देना, भगवान् का तपकल्याणक और पारणा, असुर के रूप में कामठ के जीव का भगवान् को उपसर्ग करना, पद्मावती के साथ धरणेन्द्र का आगमन और भगवान् की सेवा करना, भगवान् का ज्ञानकल्याणक, असुर का नम्र होना, समवसरण की रचना, भगवान् की स्तुति, भगवान् का धर्मोपदेश, भगवान् का विहार, मोक्षकल्याणक, इन्द्र द्वारा स्तुति और अंत में ग्रंथकर्ता की प्रशस्ति के साथ यह काव्यकृति समाप्त होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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