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________________ २७० Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature काव्य प्रकार : श्री पार्श्वनाथ चरित कृति में महाकाव्य के अनेक लक्षण प्राप्त होते हैं । उसके नामाभिधान की दृष्टि से यह चरित्र काव्य ही है । जैन तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का-पूर्वभवों के सहितचरित्र अंकित होने से चरित्र—महाकाव्य है, ऐसा विद्वानों का भी अभिप्राय है । काव्य सर्गबद्ध है, और बारह सर्गों में विभक्त है । महाकाव्य के लक्षणों के अनुसार ग्रंथ का आरंभ भी भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति से होता है । वादिराजसूरि ने इस कृति को पार्श्वनाथ जिनेश्वर चरित महाकाव्य कहा है । अनेक अलंकारों से युक्त शैली में नगर, युद्ध, स्त्री, वन-उपवन, प्रकृति, शीतकाल, ग्रीष्मकाल, वर्षाकाल आदि के चित्रात्मक वर्णन यहाँ मिलते हैं । उपमा-उपमेय और उपमान अथवा विरोधी सादृश्यमूलक अलंकारों-दृष्टांतों के आयोजन में कवि की कुशलता नि:शंक प्रशंसनीय है । काव्य के आरंभ के बाद २, ३ और ४ श्लोकों में श्री पार्श्वनाथ की प्रशस्ति करते हुए वे कहते हैं : हिंसादोषक्षयातेत पुष्पवर्षश्रियं दधुः अग्निवर्षो रुषा यस्य पूर्वदेवेन निर्मितः । तपसा सहसा निन्ये हृद्यकुंकुमपंकताम् । गुरवोऽपि त्रिलोकस्य गुरोर्दोहादिवाद्रयः लाघवं तूलवद् यस्य दानवप्रेरिता ययुः ॥ कुपित हुये कमठ के जीव असुर ने पूर्व भव के वैर के कारण जो बाण छोड़े थे वे जिनके चरणों का आश्रय पाते ही मानो हिंसा से उत्पन्न हुये दोषों को नष्ट करने के लिये ही पुष्पमाला हो गये, जो अग्नि वर्षा की थी वह तप के प्रभाव से सहसा मनोहारी कुमकुम का लेप हो गया, बड़े भारी जो पत्थर फेंके थे वे तीन लोक के गुरु भगवान् के द्रोही हो जाने के भय से ही मानो रुई के समान हल के और कोमल हो गये । भावार्थ अपने वैरी द्वारा उपर छोड़े गये बाणों को जिन्होंने फूलों की माला के समान प्रिय समझा, आग की वर्षा को केसर का लेप मान स्वागत किया और वर्षाये गये पत्थरों रुई के समान कोमल एवं हलका मान कर कुछ भी परवाह नहीं की । बाद में कवि ने गद्धपिच्छ मुनिमहाराज रत्नकरण्डक के रचयिता स्वामी समंतभद्र, नैयायिकों के अधीश्वर अफलकदेव, अनेकांत का प्रतिपादन करनेवाले सिंह आचार्य, सन्मति प्रकरण के रचयिता सन्मति, मुनिराज, तिरसठ शलाका पुरुषों का चरित्र लिखने वाले श्री जिनसेनस्वामी, जीवसिद्धि के रचयिता अनंतकीर्ति मुनि, महातेजस्वी वैयाकरण श्री पालेयकीर्ति मुनि कवि धनंजय, तर्कशास्त्र के ज्ञाता अनंतवीर्य मुनि, श्लोकवातिकालंकार के रचयिता श्री विद्यानंद स्वामी चंद्रप्रभचरित के कर्ता वीरनंदिस्वामी आदि विद्वद्जनों का बड़े आदर से और अहोभाव से स्मरण किया है । इसके बाद अनेक अलंकारों से युक्त शैली में नगर, युद्ध, स्त्री, वन-उपवनप्रकृति, शीतकाल, ग्रीष्मकाल, वर्षाकाल आदि के चित्रात्मक वर्णनों के साथ श्री पार्श्वनाथ स्वामी के चरित्र का निरूपण किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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