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श्री वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथ चरित का साहित्यिक मूल्यांकन
निरंजना वोरा
भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी २३वें तीर्थंकर हैं । उनका समग्र जीवन ही समता और करुणा का मूर्तिमंत रूप था । अपने प्रति किये गये अत्याचार और निर्मम व्यवहार को विस्मृत कर अपने साथ वैमनस्य का तीव्र भाव रखने वालों के प्रति भी सहदयता, सद्भावना और मंगल का भाव रखने के आदर्श का अनुपम चित्र भगवान् का चरित प्रस्तुत करता है ।
भगवान् पार्श्वनाथ के विषय में संस्कृत-प्राकृत भाषा में अनेक चरित्रकाव्य और अन्य साहित्य की रचना हुई है । संस्कृत भाषा में कवि वादिराजकृत सर्गबद्ध काव्य 'पार्श्वनाथ चरित' इस विषय में एक महत्त्वपूर्ण कृति है । वीतराग सर्वज्ञ धर्मचक्री श्री पार्श्वनाथ के अनुपम चरित्र का, उनके पूर्वगणों के साथ कवि ने आलंकारिक भाषा में चरित्र-चित्रण किया है । कवि और रचना समय :
'पार्श्वनाथचरित' काव्य के अंत में ग्रंथप्रशस्ति में कवि ने अपनी आचार्य परंपरा और रचना समय के बारे में उल्लेख किया है :
शकाब्दे नगवाधिरंघ्रगणने संवत्सरे क्रोधने
मासे कार्तिकनाम्नि बुद्धिमहिते शुद्ध तृतीयादिने । सिंहे पाति जयादिके वसुमती जैनीकथेयं मया
निष्पत्तिं गमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पत्तये ।। शक संवत् १४७ क्रोधन संवत्सरकी कार्ति की सुदी तृतीया दिन जबकि जयसिंह नामका राजा पृथ्वी का शासन करता था उस समय उक्त वादिराजसूरि ने यह भगवान् जिनेन्द्र का चरित्र पूर्ण किया था । वह आप लोगों को कल्याण प्रदान करें ॥
इस काव्य के रचयिता वादिराजसूरि द्रविडसंघ के अन्तर्गत नन्दिसंघ (गच्छ) और असंगल अन्वय (शाखा) के आचार्य थे । इनकी उपाधियाँ षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति और जगदेकमल्लवादी थीं । ये श्रीपालदेव के प्रशिष्य, मतिसागर के शिष्य और रूपसिद्धि (शाकटायन व्याकरण की टीका) के कर्ता दयापाल मुनि के सतीर्थ या गुरुभाई थे । लगता है वादिराज इनकी एक तरह की पदवी या उपाधि थी, वास्तविक नाम कुछ और रह्म होगा पर उपाधि के विशेष प्रचलन से वह नाम ही बन गया । श्रवणवेला से प्राप्त मल्लिषेण प्रशस्ति में वादिराज की बड़ी
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