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वाग्भट द्वितीय का गुणविचार
जागृति पण्ड्या
संस्कृत साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में अनेक जैन लेखकों ने अपना योगदान दिया है, किसी ने स्वतन्त्ररूप से अलङ्कारग्रन्थ दिये हैं तो किसी ने टीकाग्रन्थों की रचना की है । उन सब में हेमचन्द्र का 'काव्यानुशासन', नरेन्द्रप्रभसूरि कृत 'अलंकारमहोदधि', वाग्भट प्रथम का 'वाग्भटालंकार', वाग्भट द्वितीय का 'काव्यानुशासन', रामचन्द्र-गुणचन्द्ररचित 'नाट्यदर्पण', अरिसिंह कृत 'काव्यकल्पलता' इत्यादि स्वतन्त्र रचनारूप ग्रन्थ प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं । इसी तरह नमिसाधु द्वारा रुद्रट के 'काव्यालंकार' पर रची गई वृत्ति तथा मम्मट के 'काव्यप्रकाश' पर माणिक्यचन्द्ररचित 'संकेत' टीका और गुणरत्नगणि कृत 'सारदीपिका' इत्यादि टीकाग्रन्थ भी प्रसिद्ध हैं, जब कि सिद्धिचन्द्र का 'काव्यप्रकाशखंडन' एक टीकाग्रन्थ होते हुए भी स्वतन्त्र ग्रन्थरूप होने का गौरव पाता है ।
वाग्भट द्वितीय का 'काव्यानुशासन' पाँच अध्यायों में विभाजित एक छोटी-सी रचना है । किन्तु उसमें नाट्यचर्चा को छोड़कर काव्यशास्त्रीय सभी विषयों का निरूपण प्राप्त होता है। उसके प्रथम अध्याय में काव्यहेतु, कविशिक्षा, काव्यलक्षण तथा काव्यप्रकार वर्णित है। द्वितीय अध्याय में काव्यदोष काव्यगुण एवं रीतियाँ निरूपित हैं । तृतीय एवं चतुर्थ अध्यायों में क्रमश: अर्थालंकार
और शब्दालंकार का निरूपण है तथा अंतिम पाँचवें अध्याय में रसनिरूपण प्राप्त होता है, जिसमें रसस्वरूप, भावादिनिरूपण, रसदोष इत्यादिविषयक चर्चा की गई है । समग्र ग्रन्थ पर वाग्भट ने स्वयं ही 'अलंकारतिलकवृत्ति' नाम स्वोपज्ञ टीका लिखी है ।
काव्यानुशासन' के प्रथम अध्याय में "शब्दार्थों निर्दोषौ सगुणौ प्रायः सालङ्कारौ काव्यम्"१ ऐसा काव्यलक्षण दिया गया है जिसमें पूर्वपरम्परा का अनुसरण स्पष्ट है । मम्मट'-हेमचन्द्र के प्रभाव में ही वाग्भट ने काव्य में गुण, अलंकार एवं दोषाभाव की बातों को विशेष उल्लेखनीय माना है।
तत्पश्चात् दूसरे अध्याय में दोषनिरूपण करने के बाद वाग्भट गुणों का निरूपण करते हैं । उन्होंने कान्ति इत्यादि दस गुणों का स्वीकार किया है, जो इस प्रकार हैं :
कान्ति, सौकुमार्य, श्लेष, अर्थव्यक्ति, समाधि, समता, औदार्य, माधुर्य, ओजस् एवं प्रसाद ।' अह हम वाग्भट द्वितीय के अनुसार इन दस गुणों का स्वरूपविचार करेंगे ।
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