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सुदर्शनोदय महाकाव्य की सूक्तियाँ और उनकी लोकमिता
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श्लोक ही सूक्ति रूप में देखा जा सकता है :
स्वप्नावलीयं जयतूत्तमार्था चेष्टा सतां किं भवति व्यपार्था । . किमर्कवच्चाम्रमहीरहस्य पुष्पं पुनर्निष्फलमस्तु पश्य ॥२६
प्रकृत श्लोक में यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि आम्रमंजरी की भाँति सज्जनों की चेष्टा कभी निष्फल नहीं होती । भले आक के पुष्प की भाँति दुर्भाग्यशालियों के स्वप्न या प्रयत्न व्यर्थ हो जायँ ।
सुदर्शन-मनोरमा के प्रेम-सम्बन्ध को लेकर लोकोपयोगी सूक्तियों की अव्यहित प्रस्तुति कवि की प्रतिभा, लोकसम्वेदना एवं गहन लोकानुभव का प्रतीक है । यथा
तस्या मम स्यादनुमेत्यहो श्रुता किं चन्द्रकान्ता न कलावता द्रुता ।२७ __कलानाथ को देखकर चन्द्रकान्ता मणि यदि द्रवति नहीं हुई, ऐसा कभी सुना गया है ? अर्थात् अवश्य होती है।
अहो दुराराध्य इयान् परो जन:२८
मनोरमा के प्रति सुदर्शन के मोहजन्य हठ को देखकर वृषभदास ने विचारा कि इस बालक के हठ को प्रस्तुत कर कन्या मनोरमा के लिए उसके पिता सागरदत्त को कैसे समझाया जाय; क्योंकि अन्य जन दुराराध्य होता है ।
इसी प्रसंग में वृषभदास के मानो चितवन से ही सागरदत्त अपनी पुत्री मनोरमा का विवाह सम्बंध प्रस्ताव लेकर वृषभदास के घर स्वयं आ गये; क्योंकि सुकृती जन की इष्ट वस्तु स्वतः फलित होती है । यथा
आहो फलतीष्टं सतां रुचि:२९ इनकी सूक्तियाँ प्रासंगिक होती हुई भी सार्वजनीन एवं सार्वत्रिक हैं ।
निष्कर्षतः इस काव्य में जहाँ सुदर्शन, जिनमति, मनोरमा व वृषभदास जैसे उत्तम तथा राजा सदृश मध्यम चरित्रों का संयोजन किया गया है, वहीं अभयमती, कपिला, देवदत्ता, दासी और वेश्यादि अधम चरित्रों का भी वर्णन है, जो आभिजात्य, अमीरी एवं बाहर से चमक-दमक का अहंकार पालने वाले उच्च वर्णीय व राजकुलों के कृत्रिम स्वरूप का निदर्शन कराता है । वस्तुतस्तु चरित्रवान्, धैर्यशाली, त्यागी व सद्गुणी व्यक्ति ही महान् है । ऐश्वर्य, कुलीनता व मिथ्याहंकार प्रदर्शन वास्तविक गुणवत्ता के प्रतीक नहीं हैं । बल्कि समाज के लिए ऐसे लोग विषकुम्भपयोमुख हैं, जो ऐहिक और आमुष्मिक दोनों ही दृष्टियों से व्यर्थ हैं, क्योंकि वे धार्मिक आस्था, साधना, ज्ञान व वैराग्य से विहीन तथा वासना की भौतिकता से पंकिल हैं ।
यहाँ कपिला का भृत्य, कपिला, अभयमती व वेश्या वासना । माया के प्रतीक हैं और सुदर्शन जीवन्मुक्त आत्मा का उपलक्षण है तथा रानी की दासी बुद्धि मानी गयी है, जो रानी को
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