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________________ २४८ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature विज्ञो न सम्पत्तिषु हर्षमेति विपत्सु शोकं च मनागथेति ।१८ क्योंकि अपने कर्मों के अतिरिक्त किसी को सुख-दुःख भला अन्य कौन दे सकता है? दातुं सुखं च दुःखं च कस्मै शक्नोति कः पुमान् ?९ उनके अनुसार किसी की निन्दा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सूर्य के लिए उछाली गयी धूलि अपने ही सिर पर आकर पड़ती है, उस तक तो पहुँचती भी नहीं । सम्पतति शिरस्येव सूर्यायोच्चालितं रजः ।२० दार्शनिक निरूपण : सुदर्शनोदय के अनेक स्थलों पर वासना, स्वार्थ, छल, दम्भ, अहंकार और क्षणिक रूप व सम्पत्ति की व्यर्थता । सारहीनता व दान, दया, दाक्षिण्य का समर्थन किया गया है । यहाँ तक कि उपर्युक्त दोष सम्पन्न पात्रों पर सात्त्विक पात्रों की विजय दिखाते हुए ज्ञान को बहुत महत्त्व दिया गया है-ज्ञानामृतं भोजनम् कहा गया है । भोग की ज्वाला दारुण है । वह उपभोग से उसी प्रकार शान्त नहीं होती । जैसे अग्नि में लकड़ी डालने से उसकी ज्वाला नहीं शान्त होती। वह्निः किं शान्तिमायाति क्षिप्यमाणेन दारुणा ?२९ इसी प्रकार पिता के गुण पुत्र में आनुवंशिक रूप से आने के तथ्य को इतने स्वाभाविक व सरल रीति से कवि ने प्रस्तुत किया है, जितना अन्य द्वारा सम्भव नहीं । यथा किमु बीजव्यभिचारि अङ्क: २२ क्या अंकुर बीज से भिन्न प्रकार का होता है ? वर्ण्यविषयों के निरूपण में जहाँ ज्ञानसागर जी केन्द्रित होते हैं वहाँ लोकोक्तियों को ही अपने विषय का अंग बनाते दिखायी देते हैं; जैसे-सुगन्धयुक्तापि सुवर्णमूर्तिरिति३ इत्यादि । सेठ वृषभदास अपनी पत्नी से स्वप्न की बातें करते हुए ऐसे सिद्धान्त्र निरू पित करते हैं, जो त्रिकालाबाधित है-सम्पादयत्र च कौतुकं नः करोत्यनूढा स्मयकौ तु कं न२४ अर्थात् अविवाहित युवती पृथ्वी पर किसके मन में भला कौतुक उत्पन्न नहीं करती ? तात्पर्य यह कि सबके मन में कौतुक उत्पन्न करती है । मानव स्वभाव का इसी प्रकार एक अन्य चित्रांकन भी देखा जा सकता है । यथास्वभावतो ये कठिना सहेरं कुतः परस्याभ्युदयं सहेरन् २५ अर्थात् स्वभाव से कठोर जन दूसरों के उत्कर्ष को भला कैसे सहन कर सकते हैं ? यद्यपि इन उक्तियों का प्रयोग कवि ने अलग-अलग प्रसंगों में किया है, फिर भी इनका स्वतन्त्र अस्तित्व है और लोकजीवन के साथ इनका गहरा सम्बंध है । कहीं कहीं तो समूचा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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