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आचार्य रामचन्द्र सूरि और उनका कर्तृत्व
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रामचन्द्रमभिजानासि ?" चन्द्र० (साक्षेपम्)- “पञ्चप्रबन्धमिषपञ्चमुखानकेन
विद्वन्मनःसदसि नृत्यति यस्य कीर्तिः । विद्यात्रयीचणमचुम्बितकाव्यतन्द्रं
कस्तं न वेद सुकृती किल रामचन्द्रम् ? ॥" इसमें आचार्य रामचन्द्र सूरि ने अपने पाँच ग्रन्थों का उल्लेख किया है तथा जिस विद्यात्रयी के सम्बन्ध में लिखा है, वह है—व्याकरण, न्याय और साहित्य विद्या । इससे ज्ञात होता है कि इन तीनों शास्त्रों पर आचार्य का पूरा अधिकार था । इन तीनों शास्त्रों में अपने पाण्डित्य की सूचना वे 'नाट्यदर्पणविवृत्ति' के अन्त में भी देते है :
"शब्दलक्ष्म-प्रमालक्ष्म-काव्यलक्ष्म-कृतश्रमः ।
वाग्विलासस्त्रिमार्गो नौ प्रवाह इव जाहनुजः ॥" 'नाट्यदर्पणविवृत्ति' के प्रारम्भ में भी उन्होंने स्वयं को 'विद्यवेदिनः' कहा है
'प्राणाः कवित्वं विद्यानां लावण्यमिव योषिताम् ।
त्रैविद्यवेदिनोऽप्यस्मै ततो नित्यं कृतस्पृहाः ॥" 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' के ऊपर न्यास टीका की रचना करके उन्होंने व्याकरण विषयक अपना पाण्डित्य पुष्ट किया है । न्यायशास्त्र में उनकी पारङ्गतता 'द्रव्यालङ्कारविवृत्ति' द्वारा और 'नाट्यदर्पण' के अतिरिक्त अन्य अनेक रूपकों और स्तोत्रों से साहित्यविद्या की प्रौढ़ि सूचित होती है । इन सभी शास्त्रों में उनके पाण्डित्य की अपूर्वता उनके उपर्युक्त अनेकानेक ग्रन्थों के अनुशीलन से प्रमाणित होती है ।
आचार्य रामचन्द्र सूरि के नाटकों में उनकी स्वातन्त्र्यप्रियता का सविशेष उल्लेख प्राप्त होता है । उनकी काव्यरचना पर किसी का प्रभाव नहीं है । इसे प्रदर्शित करने के लिए 'नलविलास' की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है :
नट :- (विमृश्य)-भाव ! अयं कविः स्वयमुत्पादक उताहो परोपजीवकः ? सूत्रधार :- अत्रार्थे तेनैव कविना दत्तमुत्तरम्
जनः प्रज्ञाप्राप्तं पदमथ पदार्थं घटयतः पराध्वाध्वन्यान् नः कथयतु गिरां वर्तनिरियम् । अमावास्यायामप्यविकलविकासीनि कुमुदा
न्ययं लोकश्चन्द्रव्यतिकर विकासीनि वदति ॥(१.७) । आचार्य रामचन्द्र के ऐसा लिखने का अभिप्राय यह ज्ञात होता है कि किसी ने इन्हें गतानुगतिक कह दिया होगा । उसका मुँह बन्द करने के लिए यहाँ उन्होंने यह स्पष्टीकरण दिया है । यहाँ नट पूछता है कि यह कवि स्वयं नूतन कल्पनायें करके भावों को उपन्यस्त करता है
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