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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature अथवा दूसरों से लेकर ? इसका उत्तर है कि हम तो सदैव अपनी बुद्धि में स्फुरित नूतन पदार्थों का निबन्धन करते हैं तथापि यदि दूसरे लोग हमे परानुवर्तक कहें तो कहें । यह संसार कुमुदों को चन्द्रमा के सम्पर्क से लिखने वाला कहता है लेकिन कुमुद तो अमावस्या की रात्र में भी खिलते हैं । कहने का आशय है कि रामचन्द्र कवि स्वयम् उत्पादक है ।
उन्होंने आगे भी लिखा है-"अपि न शपथप्रत्येयपदपदार्थसम्बन्धेषु प्रीतिमादधानं जनमवलोक्य जातखेदेन तेनेदं ताभिहितम्
स्पृहां लोकः काव्ये वहति जरठैः कुण्ठिततमैः वचोभिर्वाच्येन प्रकृतिकुटिलेन स्थपुटिते । वयं वीथीं गाईं कथमपि न शक्ताः पुनरिमा
मियं चिन्ता चेतस्तरलयति नित्यंकिमपि नः ॥" प्राचीन शैली के जिन यमकश्लेषादि-प्रधान और चित्रकाव्यों का अर्थावबोध भी कठिन होता है-ऐसे काव्यों के प्रति लोगों की विशेष अभिरुचि देखकर, उनकी रूढिग्रस्त मानसिकता से खिन्न होकर ही आचार्य कवि रामचन्द्र सूरि ने ऐसा लिखा है। उनके उपर्युक्त कथन का भाव यह है कि हम इस प्रकार की दुर्जेय और निकृष्ट रचनापद्धति का अवलम्बन करने में असमर्थ हैं । ऐसी स्थिति में लोग हमारे काव्य को पसन्द करेंगे या नहीं—यह चिन्ता हमें सता रही है ।
इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य रामचन्द्र सूरि की रचनायें पुराने काव्यों की लीक से हट कर हैं । उनकी रचनायें न तो पाण्डित्य के भूयोभार से बोझिल हैं और न ही चित्रकाव्य की दुर्बोधता के आडम्बर से सङ्कटग्रस्त; अपितु वे सरल हैं, सुबोध हैं । इसलिए उनकी रचनाओं में प्रासादिक रसमयता है । इस काव्यगत वैशिष्ट्य का उल्लेख उन्होंने स्वयं ही किया है :
. "प्रबन्धानाधातुं नवभणितिवैदग्ध्यमधुरान्
कवीन्दा निस्तन्द्राः कति न हि मुरारिप्रभृतयः । ऋते रामानान्यः किमुत परकोटौ घटयितुं
रसान् नाट्यप्राणान् पटुरिति वितर्को मनसि नः ।" अर्थात्, नवीन कल्पना और उक्तियों से मधुर काव्यों की रचना करने वाले मुरारि आदि न जाने कितने कवि हुए होंगे । किन्तु नाट्य के प्राणभूत रसों को चरमोत्कर्ष तक पहुँचाने में समर्थ रचना की सृष्टि करने वाला तो रामचन्द्र के अतिरिक्त अन्य कोई कवि दिखाई नहीं देता।
रामचन्द्र सूरि ने विशेषरूप से रूपकों की रचना में ही अपने कवित्व का चरमोत्कर्ष माना है । (प्रसिद्ध भी है-'नाटकान्तं कवित्वम्') इसीके अनुरूप उन्होंने मुरारि कवि का नाम भी यहाँ लिया है क्योंकि मुरारि भी नाटककार ही थे । किन्तु रामचन्द्र की दृष्टि में मुरारि ही क्यों आये ? क्या पूर्वकी कालिदास, भवभूति, हर्ष, भट्टनारायण जैसे नाटककार मुरारि से कम थे । रसोत्कर्ष की दृष्टि से तो इन सब के समक्ष न मुरारि और न ही रामचन्द्र कहीं ठहरते हैं । आचार्य रामचन्द्र सूरि ने अपने रचना-स्वातन्त्र्य और वैशिष्ट्य का प्रतिपादन अनेकत्र किया
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