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________________ २२४ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature "प्रभावकचरित' में वह स्तुति इस प्रकार दी गयी है : मात्रयाऽप्यधिकं काञ्चिन्न सहन्ते जिगीषतः । इतीव त्वं धरानाथ ! धाराधिपमपाकृथाः ।। ___(अर्थात्, विजयेच्छु जन अपने से तनिक भी बढ़कर अधिक क्रिसी को भी सहन नहीं करते । अतः, हे धरानाथ ! आप धाराधिप (मालवराज) का विनाश कर डालें ।) यहाँ, इस स्तुति-पद्य में 'धारानाथ' में 'धरानाथ' से मात्र एक मात्रा अधिक है । इस उक्ति में कविनिबद्ध चमत्कार के कारण ही आचार्य हेमचन्द्र ने 'अनुक्तम्माद्यविद्वद्भिः' कहकर प्रशंसा की है । रामचन्द्र कृत इस स्तुति को सुनकर सिद्धराज जयसिंह हर्षविभोर हो गया - "शिरोधूननपूर्वञ्च भूपालोऽत्र दृशं दधौ । . रामे वामेतराचारो विदुषां महिमस्पृशाम् ॥' इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्धराज जयसिंह के समक्ष, अपने देहावसान से प्रायः चालीस वर्ष पूर्व, रामचन्द्र सूरि को अपना प्रमुख शिष्य और योग्य पट्टधर उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था । आचार्य रामचन्द्र सूरि का जीवन और स्थितिकाल आचार्य रामचन्द्र सूरि के जन्मस्थान का ठीक-ठीक ज्ञान किसी को भी नहीं है । रामचन्द्र सूरि ने न तो स्वयम् अपने किसी ग्रन्थ में अपने बारे में कोई उल्लेख किया और नहीं किसी अन्य ने कहीं उनका उल्लेख किया है । चूँकि वे अणहिलपुरपट्टन के निवासी आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य थे अतः वे गुर्जरप्रान्त में (या) अणहिलपुरपट्टन के आसपास कहीं पैदा हुए होंगे-ऐसी सम्भावना की जा सकती है। आचार्य हेमचन्द्र ने राजसभा में रामचन्द्र सुरि का परिचय सिद्धराज जयसिंह ने अपने प्रमुख शिष्य और योग्य पट्टधर के रूप में कराया था । अतः, रामचन्द्र सूरि निश्चय ही अपने गुरु आचार्य हेमचन्द्र के साथ राजसभा में जाते रहे होंगे । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे पैदा चाहे जहाँ हुए हों, वे अणहिलपुरपट्टन में रहते अवश्य थे । यद्यपि आचार्य रामचन्द्र सूरि ने अपनी कृतियों के प्रारम्भ में और अन्य स्थलों पर आत्मपरिचय दिया है किन्तु वह इतना संक्षिप्त और अधूरा है कि उससे हमें आचार्य के वंश, माता-पिता के नाम और जन्मादि वृत्तान्त का पता नहीं चलता । अपने परिचय में सर्वत्र अपने को आचार्य हेमचन्द्र का शिष्य कहा है । इससे स्पष्टतः प्रतीत होता है कि आचार्य को अपनी सत्ता के मूल में अपने गुरु की सत्ता का बोध कराना अभीष्ट था और वे अपने मौलिक सम्बन्धों और लोकवृत्त का परिचय देने के प्रति उदासीन थे । इसके बावजूद, उनके अनुमान का बोध कराने वाली पर्याप्त साम्मग्री इतस्ततः उपलब्ध है। इससे उनके चरित और चरित्र का पर्याप्त ज्ञान हो जाता है । 'रघुतिलकम्' की प्रस्तावना में यह सामग्री इस प्रकार है : "मारिष ! सिद्धहेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनविधानवेधसः श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रस्य शिष्यं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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