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________________ २१६ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature कल्पना भी विलक्षण उतरी है : "हस्तेन सुन्दरि मुहुर्विनिवारितोऽपि, भृगस्तवाधरदले नवविह्यमाने । धावत्रशोक नवपल्लवशंकिचेताः, स्मेरं करिष्यति न कस्य मुखं वनान्ते ॥" ३. कवि असंग : (१० वी० श० उत्त०) जैनाचार्य नागनन्दी के शिष्य कवि असग नैरेति के गर्भज और पटुमति के पुत्र थे । दशमी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उत्पन्न इस कवि ने संस्कृत में दो जैनभित्तिमूलक महाकाव्यों की रचना की है -वर्द्धमानचरित और शान्तिनाथचरित । १८ सर्गों वाले वर्द्धमानचरित में जहाँ भगवान् महावीर के पूर्वजन्मों की कथा के साथ साथ वर्धमान महावीर के जीवनचरित्र का सांगोपांग वर्णन किया गया है, वहीं शान्तिनाथचरितमहाकाव्य, जैनधर्म के १६वें तीर्थंकर भगवान् शान्तिनाथ का वर्णन प्रस्तुत करता है । इनके महाकाव्यों में जहाँ वैदर्भी शैली का विन्यास है, वहीं पर स्थलानुसार रस की अभिव्यक्ति बड़ी मनभाविनी है । अलंकारों का प्रचुर प्रयोग व प्रसादगुण का प्राचुर्य इनके काव्यों में सहज ही देखे जा सकते हैं । ४. महासेन सूरि :- (९९० ई०) - राजा भोज के चाचा एवं पिता क्रमश: मुंजराज एवं सिन्धुराज तथा नवसाहसांकचरित के निर्माता परिमल कालिदास के समसामयिक महाकवि महासेन सूरि लाट-वर्गट संघ के आचार्य तथा सिन्धुराज के द्वारा सम्मानित महामात्य पर्पट के गुरु थे । इन्होंने दशवी शताब्दी के अन्तिम चरण अर्थात् ९९० ई० के आसपास संस्कृत में प्रद्युम्नचरित नामक १४ सर्गौवाले महाकाव्य की रचना की थी। विष्णुपुराण एवं भागवत की ही भाँति श्रीकृष्णपुत्र प्रद्युम्न की जैनधर्मियों के बीच प्रचलित कथाओं को जिनसेन प्रथम ने जैन हरिवंशपुराण में विस्तार से वर्णन किया है । जबकि इसी कथा को लेकर महासेन सूरि ने प्रद्युम्नचरित को पल्लवित किया है । यह महाकाव्य सुतरां रुचिकर और मनमोहक है, इसकी भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है । ५. वाग्भट प्रथम :- (वी० श० उत्तर) . आप का वाग्भटालंकार के प्रणेता से भिन्न और प्राचीन है । संभवतः आप का समय ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध हो सकता है। आपने नेमिनिर्वाण काव्य की रचना की है, जिसमें द्वारिका के यादववंशीय राजा समुद्रविजय के पुत्र नेमिकुमार (अरिष्टनेमि) जो भगवान् श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे, के चरित्र का वर्णन किया गया है । इस महाकाव्य का आधार ग्रन्थ है जिनसेन प्रथम का हरिवंशपुराण । महाकाव्य के अनुसार जब नेमिकुमार का विवाह राजीमती के साथ होने ही वाला था कि उससे पूर्व परम्परासम्मत बलिप्रदान हेतु जो पशु वहाँ एकत्रित थे, सहसा करुण चीत्कार कर बैठे । इसी चीत्कार से नेमिकुमार का हृदय द्रवीभूत हो गया और वे अहिंसा की भावना से प्रेरित होकर तपस्या करने चले गये । आपके नेमिनिर्वाणमहाकाव्य के कई श्लोक वाग्भटालंकार में भी पाये जाते हैं, पर वहाँ उद्धृत निम्नश्लोक आपके महाकाव्य में नहीं मिलता : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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