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________________ संस्कृत महाकाव्यों में जैनियों का योगदान २१५ थे । राजशेखर जैसे कुछ ऐसे भी नाटककार हैं, जिन्होंने अपने नाटकों में अथवा नाटकविशेष में केवल प्राकृतभाषा का ही आश्रय ग्रहण किये हैं। कर्पूरमंजरी जैसी इस प्रकार की रचना को संस्कृत नाट्यशास्त्रियों ने 'सट्टक" की संज्ञा दी है । __यह कहना थोड़ा कठिन होगा कि सबसे पहले इस दिशा में किसने कदम आगे बढाया, परन्तु उपलब्ध इतिहास और साक्ष्य के आधार पर यह बता देना भी गलत न होगा कि संस्कृत नाटककार भास वि० पू० चतुर्थ या पंचम श० ने ही सबसे पहले अपने नाटकों में प्राकृत भाषा को अपनाया था, फिर स्वामी समन्तभद्र दूसरी शताब्दी ने भक्तिरस से स्निग्ध श्लाघनीय स्तोत्रों की रचना कर संस्कृतकाव्यों के प्रणयन का श्रीगणेश किया । संस्कृतसाहित्य की विद्याओं में जैनाचार्यों के जो योगदान रहे हैं, उन सभी का मात्र एक प्रबन्ध में नामोल्लेख तक करना असम्भव हैं । न जाने कितने नाम इतिहासकारों की गवेषणा के बाद भी रह गये हैं, पर जो उपलब्ध हैं, उनमें भी सैकड़ों आचार्य ऐसे हैं, जिनका केवल उल्लेख मिलता है, उनका परिचय या ग्रन्थ का अस्तित्व नहीं । तथापि संस्कृत साहित्य के स्तोत्रकाव्य हों अथवा चम्पूकाव्य, गद्यकाव्य हों अथवा खण्डकाव्य, सन्देशकाव्य हों अथवा दृश्यकाव्य हों, हर एक विद्या में जैनाचार्यों ने रचनायें करके संस्कृत साहित्य वाटिका को सुशोभित किया है । परन्तु यहाँ हम मात्र महाकाव्य के क्षेत्र में उनके योगदानों को एकत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं तथा इस प्रयास में जिन ग्रन्थों, लेखों, लेखकों वा विद्वानों से सहायता मिली है उन सभी के प्रति सविनय कार्त्तज्ञ प्रदर्शित करते हैं । १. आचार्य जटासिंह नन्दी :- (६ठी शता. उत्तरार्द्ध) यद्यपि इनका नाम सिंहनन्दी था, परन्तु इस नाम के अनेक जैनाचार्यों के होने से और उन सब से इनका पार्थक्य सिद्ध करने के लिये इनका नाम जटासिंहनन्दी प्रसिद्ध हो गया । जटाचार्य या जटिल भी इनका ही नामान्तर था, जबकि इनका समय छठी सदी का उत्तरार्द्ध और स्थान कर्नाटक माना जा रहा है । इन्होंने ३१ सर्गों में वरांगचरित नामक महाकाव्य की रचना की थी । कठोर दार्शनिक तत्त्वों को भी सहृदय पाठकों के हृदय में सरसकाव्य के माध्यम से उतारने का इन्होंने सफल एवं श्लाघनीय प्रयास किया है। यहाँ यह स्मरणीय है कि इस महाकाव्य के चरित नायक "वरांग" २२ वे तीर्थकर नेमिनाथ और भगवान् श्रीकृष्ण के समकालीन जैन महापुरुष के रूप में विख्यात हैं । २. वीरनन्दी : (१०वीं श० उत्तरार्द्ध) चन्द्रप्रभ नामक तीर्थंकर के जीवनचरित पर आधारित "चन्द्रप्रभचरित" महाकाव्य के रचयिता आचार्य वीरनन्दी, आ० अभयनन्दी के शिष्य थे और इनका समय दशमी श० का उत्तरार्द्ध माना जाता है । कालिदास की शैली से प्रभावित कवि अपने इस १८ सर्गीय महाकाव्य में तीर्थंकर चन्द्रप्रभ के सात भवों की कथा का विस्तार से वर्णन किया है । जीवन को निर्वाण की ओर ले जाने के अपने उद्देश्य में कवि वास्तविकरूप से सफल हुआ है। जबकि कवि की कमनीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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