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संस्कृत महाकाव्यों में जैनियों का योगदान
उदयनाथ झा "अशोक"
भारतीय दर्शन परम्परा का प्रमुखतः द्विविध वर्गीकरण किया गया है-आस्तिक और नास्तिक । इन दोनों ही दर्शनों की परिणति मोक्ष है । दार्शनिक चिन्तक, विचारक, मनीषि विद्वान् हों या ऋषि, इस सृष्टि में जो कुछ विद्यमान है, जो कुछ वर्तमान है, उसमें असन्तोष के साथ ही भविष्य की कोई समाधायक आशा की किरण भी उन सबकी सतत अभिप्रेरक रही है और इसीलिये दर्शन जगत् किसी न किसी रूप में दुःख से प्रारम्भ होकर दुःखमुक्ति तक की यात्रा तय करता है ।
. कहना न होगा कि भारतीय विद्वान् अस्ति-नास्ति के वैदिक आधार पर विभाजित नास्तिक दर्शन की कोटि में बौद्ध-जैन व चार्वाक दर्शनों को रखते आए हैं । बहुत पहले विद्वानों में यह धारणा थी कि जैनधर्म बौद्धधर्म की ही एक शाखा किं वा सम्प्रदाय है । परन्तु जैनधर्म की मौलिक तत्त्व मीमांसा एवं दर्शन पर किये गए शोध कार्य से अब यह तथ्य स्पष्ट हो गया है कि जैनधर्म एक स्वतन्त्र दर्शन एवं तात्त्विक चिन्तन से समन्वित होने के कारण बौद्धधर्म से सर्वथा भिन्न है । जैनधर्म ही आर्हत सम्प्रदाय है, क्योंकि अर्हत् या तीर्थंकर, "जिन" के ही पर्याय हैं । जैनधर्म के दो भाग हैं-दिगम्बर और श्वेताम्बर । जयन्तभट्ट के अनुसार बाद में इसके और भी सम्प्रदाय बने, जैसा कि वे लिखते हैं - "आर्हतः केऽपि दिगम्बराः, केऽपि वृक्षविदलमात्रवसनाः, केऽपि रक्तवाससः, केऽपि श्वेतपटाः" । इसी प्रकार मैथिल पद्मनाभ मिश्र, केवल दिगम्बर में ही कई भेद मानते हैं-"दिगम्बरभेदा एवं क्षपणक श्वेताम्बरार्हतनीलाम्बररक्ताम्बर चर्माम्बरबर्हाम्बरादयः" ।
जैनधर्मग्रन्थों की भाषा प्राकृत है । जनता के हितरक्षण हेतु उन्हीं की इस भाषा में भगवान् महावीर के आध्यात्मिक उपदेशों का गुम्फन किया गया है । कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस प्रकार वैदिक धर्मावलम्बियों की भाषा संस्कृत रही है, बौद्धधर्मावलम्बियों की भाषा पाली रही है, उसी प्रकार जैनधर्म की भाषा प्राकृत है । परन्तु जैनधर्म को तर्क की ठोस भिक्ति पर प्रतिष्ठित करने के लिए तथा अध्यात्मवेत्ता मनीषियों के बीच इसे ग्राह्य और स्पृहणीय बनाने के लिए जैनाचार्यों को जिस प्रकार संस्कृतभाषा का आश्रय लेना अत्यावश्यक दिखा, उसी प्रकार संस्कृतलेखों को भी आपनी रचना को ठोस, वैज्ञानिक, तार्किक और जनसामान्यतक के लिये बनाने हेतु प्राकृत भाषा का सहारा लेना नितान्त अनिवार्य हो गया । यही कारण था कि संस्कृत के सभी प्राचीन नाटककार स्त्री चेट आदि पात्रों के लिए "प्राकृत" भाषा का ही चयन करते
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