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गाहासत्तसई की लोकमिता
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ने इनकी परिभाषा को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मानते हुए तथा वर्तमान में आंग्ल शब्द 'फोक लोर' का हिन्दी पर्याय 'लोकवार्ता' मानते हुए डॉ० उसकी परिभाषा 'साधारण जनता की प्रथा, विश्वास,
और रीतिरिवाज अथवा 'फोक लोर' दी है। इसके आगे आपने कहा है कि आचार-विचार जिसमें मानव का पारस्परिक रूप प्रत्यक्ष होता है, और जिसके स्रोत लोकमानस में पाये जाते हैं तथा जिसमें परिमार्जन और संस्कार की चेतना काम नहीं करती । लौकिक, धार्मिक-विश्वास, कथा, धर्म-कथा, लौकिक-गाथा, कहावतें, पहेलियों आदि सभी लोकवार्ता के अङ्ग हैं ।
इस प्रकार 'लोक' शब्द नगर, ग्राम में स्थित समस्त मानवजाति का एक ऐसा समुदाय है जो प्राचीन विश्वासों, रीतिरिवाजों तथा संस्कृतियों के प्रति आस्थावान् है । अधिकांश विद्वानों ने अशिक्षित एवं अल्प सभ्यजनता को ही 'लोक' के अन्तर्गत समाविष्ट किया है, परन्तु ऐसा शिक्षित समाज जिसमें परम्परागत तत्त्व विद्यमान है वह भी लोक का प्रतिनिधित्व करता है 'लोकतत्त्व' मनुष्य के आदिम विश्वासों और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है जो केवल अतीत की वस्तु नहीं है अपितु इसमें जन-जीवन की आत्मा की भी प्राण-प्रतिष्ठा रहती है । सभ्यता के उच्चतम शिखर पर प्रतिष्ठित होने पर भी पुरातन और व्यवहार छिपे हुए हैं, मानस मन के विवेकजन्य चिन्तन के प्रयास में रञ्जमात्र शिथिलता आते ही वे मानस धरातल पर सहसा उभर
आते हैं यदि साहित्य को मानवमन की सूक्ष्मतम अनुभूतियों को इन्द्रधनुषी प्रतिबिम्ब कहें तो उसमें परिव्याप्त लोकतत्त्व को उसकी सूक्ष्मतम अंतरङ्ग सप्तरङ्गिणी आभा का मूल कहा जाना चाहिये । साहित्य में लोकतत्त्व की यह परिव्याप्ति इतनी अंतरङ्गिणी और सूक्ष्म है कि उसमें सतत विद्यमान रहने पर भी प्रायः अप्रतीत बनी रहती है । साहित्य एवं लोकतत्त्व की परिव्याप्ति भी एक शाश्वत एवं चिरस्थायी तत्त्व है ।।
गाहासत्तसई समय के कैनवास पर उकेरी कुछ ऐसी ही महाराष्ट्री प्राकृत में निबद्ध काव्यकृति है जिसमें तत्कालीन सामान्य लोक-जीवन मूर्तमान हो उठा है तथा जिसने युगधारा को नगर से ग्रामों की ओर मोडा है, लोकजीवन की वास्तविक अनुभूतियों को अपने यथार्थ परिवेश में वर्णन का प्रमुख विषय बनाया है। 'पल्ली' और 'गिरिग्रामों' में लहराता उन्मुक्त जीवन ही गाहाकार का प्रेरणास्रोत है । नागर जीवन की शिष्टभव्यता उन्हें नहीं मोहती । इतिहास की दृष्टि से यह साहित्य जगत की अभूतपूर्व घटना है । कवि हाल ने साहित्यिक ही नहीं सांस्कृतिक एवं लोकजीवन की दृष्टि से भी एक नूतन सन्दर्भ की स्थापना कर काव्य जगत् में एक ऐसी पारम्परिक रचना विधा का प्रणयन किया है जो स्वयं में प्राचीन होकर चिर-नवीन है ।
ग्रामीण समाज के लोकपक्ष को साकार करने वाले अनेक प्रसंग गाहासत्तसई में प्रभूत मात्रा में अनुस्यूत हैं । डॉ० सत्येन्द्र, श्री श्याम परमार तथा डॉ० रवीन्द्र भ्रमर ने श्रीमती शार्लट सोफिया वर्न' की परिभाषा के आधार पर लोक विधायक तत्त्वों को तीन वर्गों में विभक्त किया
१. लोकप्रचलित विश्वास, २. लौकिक रीतिरिवाज, ३. लोकसाहित्य लोकप्रचलित विश्वासों के अन्तर्गत जन्त्र-तन्त्र, टोना, टोटका, भूतप्रेत, देवी-देवता, शकुन-अपशकुन, स्वप्नविचार, लौकिक
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