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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
०३. कोटिसहित
कोटिसहित
कोटिसहित ०४. नियंत्रित
नियंत्रित
निखण्डित ०५. साकार (सागार)
साकार (सापवाद) साकार ०६. अनाकार (अनागार)
अनाकार (निरपवाद) अनाकार ०७. परिमाण कृत
परिमाणकृत
परिमाणकृत ०८. निरवशेष
निरवशेष
अपरिशेष ०९. संकेत (सूचक)
संकेत
अध्वानगत (मार्गगत) १०. अद्धाप्रत्याख्यान (कालमानिक) अध्वाप्रत्याख्यान . सहेतुक (उपसर्गादि)
भगवती में मूलगुण प्रत्याख्यान (पंच पाप-विरति) एवं उत्तरगुण प्रत्याख्यान की चर्चा कर उत्तरगुण प्रत्याख्यान के दस भेद बताये हैं । इन प्रकारों से यह स्पष्ट है कि मूलाचार में नवम एवं दसम प्रत्याख्यान का न केवल क्रम परिवर्तन है, आठवें नाम में भी (पर अर्थ में नहीं) अंतर है। पर उनके अर्थों में भी अंतर है। महाप्रज्ञ ने बताया है कि मूलाचार का क्रम व अर्थ अधिक स्वाभाविक एवं परंपरागत लगता है। दिगंबर परंपरा में इनका परंपरागत क्रम व्यत्यय कब, कैसे और क्यों हुआ यह समाधेय है । १९. उपासक या श्रावक प्रतिमा के ग्यारह प्रकार
सामान्य गृहस्थों की कमिक आध्यात्मिक प्रगति के लिये अनेक ग्रंथों में ग्यारह प्रतिमाओं या चरणों के पालन का उल्लेख है । इन चरणों की धारणा प्राचीन प्रतीत होती है, पर इनका नामोल्लेख सर्वप्रथम समवायांग में पाया जाता है, पर भगवती, उत्तराध्ययन आदि में नहीं है । फलतः प्रतिमाओं की अवधारणा का विकास किंचित् उत्तरवर्ती प्रतीत होता है । ये प्रतिमायें सम्यग् दर्शन और अनेक वृत्तों पर आधारित है । इनकी संख्या ग्यारह है जो स्थानांग १०.४५ में भी निर्दिष्ट है। अनेक श्वेतांबर और दिगंबर ग्रंथों में भी इन प्रतिमाओं का उल्लेख है जैसा नीचे दिया गया है: समवाओं ११
अन्य ग्रन्थ
जैनेन्द्र सिद्धांत कोष ०१. दर्शन श्रावक
दर्शन श्रावक
दर्शन ०२. कृतव्रतकर्म
कृतव्रतकर्म
व्रत ०३. कृतसामायिक
कृतसामायिक
सामायिक ०४. प्रोषधोपवास-निरत
प्रोषधोपवासनिरत
प्रोषधोपवास ०५. दिवा-ब्रह्मचारी
रात्रि-भक्त परित्याग
सचित्त-त्याग ०६. ब्रह्मचारी (पूर्ण)
सचित्त परित्याग
रात्रि-भुक्तित्याग ०७. सचित्त परित्याग
दिवा ब्रह्मचारी
ब्रह्मचर्य ०८. आरंभ परित्यागी
पूर्ण ब्रह्मचारी
आरंभत्याग
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