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________________ जैनों की सैद्धांतिक धारणाओं में क्रम-परिवर्तन १९५ ०९. प्रेष्यपरित्यागी आरंभ-प्रेषणपरित्याग परिग्रहत्याग १०. उद्दिष्ट्रभक्त परित्यागी उद्दिष्ट भक्त वर्जन अनुगतित्याग ११. श्रमणभूत श्रमणभूत उद्दिष्ट त्याग इस तालिका से यह स्पष्ट है कि पहली चार प्रतिमाओं को छोड़ तीनों ही प्रकरणों में अन्य प्रतिमाओं के क्रम में अंतर है । दिगंबर परंपरा में श्रमणभूत नामक प्रतिमा ही नहीं है । इन तीनों क्रमों का विकास-काल अन्वेषणीय है । दिगंबर परंपरा में 'श्रमणभूत' प्रतिमा का विलोपन भी विचारणीय है । श्वेतांबर परंपरा मानती है कि प्रतिमाधारण जीवन के अंतिमभाग (६६ माह) में किया जाता है, पर दिगंबर परंपरा इसे कभी भी पालनीय मानती है । प्रतिमा-पालन निरपवाद होता है, व्रत सापवाद भी हो सकते हैं । प्रतिमाओं के क्रम का वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक अध्ययन आवश्यक है । उपरोक्त उन्नीस प्रकरण प्राय: पूर्णत: ही जैन सैद्धांतिक मान्यताओं से सम्बन्धित हैं । उनमें पाये जाने वाले क्रम परिवर्तनों पर टीकाकारों या विद्वानों ने विचार किया हो, यह देखने में नहीं आया । इसलिये धार्मिक आस्था को बलवती बनाने के लिये इन पर विचार करना आवश्यक है । इन क्रम व्यत्ययों के विषय में निम्न बिन्दु विचारणीय हैं : १. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य जैन सिद्धांतों के विकास को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह मानना सुसंगत लगता है कि भिन्न-भिन्न समयों में इनके आयाम विस्तृत, परिवर्तित और संक्षेपित हुए हैं । इसमें प्रारंभ में लोक- अनुभव था, बाद में बुद्धिवाद आया, उत्तरकाल में व्यक्तिवाद । श्रद्धावाद आया । दर्शनज्ञान-चरित्र एवं काय-वचन-मन का उत्तरवर्ती क्रम इसी का प्रती माना जा सकता है । २. बुद्धिवाद का विकास ____ आ० उमास्वाति का युग संभवतः संक्रमण काल रहा होगा । इसीलिये उनके सूत्रों में जहाँ भक्तिवाद के स्वर गूंज रहे हैं, वही संरंभ आदि का क्रम, जीवादि तत्त्वों तथा नयों का व्यवस्थित कम उनके बुद्धिवादी स्वरूप को व्यक्त करता है । हाँ, ऐसा लगता है कि वे चार बंधों के क्रम में ऐसा नहीं कर पाये । उमास्वाति के बाद के प्रायः सात सौ वर्ष के बुद्धिवादी युग ने जैनों की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाये । आज उसी प्रवृत्ति की आवश्यकता है । अनेकांतवाद की चौथी-पाँचवीं सदी का विकास हमें अवक्तव्यता तक तो ले जाता है, पर उसमें निर्णयात्मकता का तत्त्व कहाँ है ? यह प्रश्न है । ३. परिवर्तनशीलता : वैज्ञानिकता की कसौटी . उपरोक्त कम-व्यत्यय आगमज्ञों की वैज्ञानिक मनोवृत्ति को प्रकट करते हैं । अतः सभी आगमिक मान्यताओं को त्रैकालिक मानना प्रायः समीचीन नहीं प्रतीत होता । ये क्रम परिवर्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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